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इस विषय में हम आपसे एक बात और पूछते है—शब्द और अर्थ दोनों मिलकर काव्य कहलाते हैं, अथवा प्रत्येक पृथक् पृथक्? यदि आप कहेंगे कि दोनों सम्मिलित रूप में काव्य के नाम से व्यवहृत किए जाते हैं, तब तो जिस तरह एक और एक मिलकर (अर्थात् दो एको का योगफल) दो होता है—दो सम्मिलित एको का नाम ही दो है; दो के अवयव प्रत्येक एक को दो नहीं कह सकते उसी प्रकार श्लोक के वाक्य को आप काव्य नहीं कह सकते; क्योंकि वह उसका एक अवयव केवल शब्द है। सो इस तरह पूर्वोक्त व्यवहार सर्वथा उच्छिन्न हो जायगा। अब यदि आप कहेंगे कि प्रत्येक को पृथक् पृथक् काव्य शब्द से व्यवहार करना चाहिए, तो "एक पद्य में दो काव्य रहते हैं" यह व्यवहार होने लगेगा। सो है नहीं।
इस कारण, वेद, शास्त्र और पुराणों के लक्षणों की तरह काव्य का लक्षण भी शब्द का ही होना चाहिए। अर्थात् शब्द को ही काव्य मानना चाहिए, शब्द-अर्थ दोनों को नहीं[१]
- ↑ इन दलीलों का खंडन नागेश भट्ट ने, इसकी टीका में, बहुत थोड़े में, बहुत अच्छे ढंग से किया है। अच्छा, आप वह भी सुन लीजिए—
नागेश कहते है—जिस तरह "काव्य सुना" इत्यादि व्यवहार है, उसी प्रकार "काव्य समझा" यह भी व्यवहार है, और समझना अर्थ का होता है, शब्द का नहीं, अतः काव्य शब्द का प्रयोग शब्द और अर्थ दोनों के सम्मिलित रूप के लिये ही होता है, यह मानना चाहिए। वेदादिक भी केवल शब्द का नाम नहीं है, किंतु शब्द-अर्थ दोनों के सम्मिलित रूप का ही नाम है, अतएव जो महाभाष्यकार भगवान् पतंजलि ने 'तदधीतं तद्वेद' इस पाणिनीय सूत्र की व्याख्या करते हुए 'शब्द-अर्थ' दोनों को वेदादि रूप माना है वह संगत हो सकता है। रही आपकी दूसरी दलील—जिस तरह हम एक को दो नहीं कह सकते उसी तरह दोनों का नाम यदि काव्य ही तो प्रत्येक के लिये उस शब्द का व्यवहार नहीं हो सकता। सो कुछ नहीं है। ऐसे स्थल पर हम रुढ़ लक्षणा से काम चला सकते हैं—उसके द्वारा प्रत्येक के लिये भी काव्य शब्द का प्रयोग हो सकता है। इस कारण "शब्द-अर्थ" दोनों को काव्य-शब्द से व्यवहृत करने में कोई दोष नहीं।