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हमसे कोई आकर कहे कि "आप के लड़का पैदा हुआ है।", "आपको इतने रुपए दिए जायँगे" (अथवा यों समझिए कि "आपको लाटरी में इतने रुपए प्राप्त हुए हैं") तो उन वाक्यों के ज्ञान से—उनके बार-बार अनुसंधान से—भी हमे आनंद प्राप्त होता है; पर वह आनंद अलौकिक नहीं, लौकिक है, इस कारण, उन वाक्यों को हम काव्य नहीं कह सकते। (तब नव्य-नैयायिकों की रीति से जो बाल की खाल खींची गई है, उसे छोड़कर, यदि इस लक्षण का सार समझे तो यह हुआ कि) "जिस शब्द अथवा जिन शब्दों के अर्थ के बार-बार अनुसंधान करने से किसी अलौकिक आनंद को प्राप्ति हो, उसका अथवा उनका नाम काव्य है"।
यह तो है पंडितराज का काव्य-लक्षण। अब साहित्यशास्त्र के प्राचीन आचार्यों के साथ उनकी जो दलीलें हैं, उन्हे भी सुनिए। काव्य-प्रकाशकार आदि साहित्य-शास्त्र के प्राचीन आचार्यों ने लिखा है कि "दोष-रहित, गुण एवं अलंकार सहित शब्द और अर्थ का नाम काव्य है।" अब इस विषय में सबसे पहले तो यह विचार करना है कि—काव्य शब्द का प्रयोग केवल शब्द के लिये किया जाता है अथवा शब्द और अर्थ दोनों के लिये। अच्छा, इस विषय में पंडितराज के विचारों को ध्यान मे लीजिए। वे कहते है—
"शब्द और अर्थ" दोनों काव्य नहीं कहे जा सकते; क्योंकि इसमें कोई प्रमाण नहीं। प्रत्युत यदि विचारकर देखें तो