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में आग की तरह और स्वच्छ[१] शर्करा अथवा वस्त्रादि में जल की तरह चित्त को रस से व्याप्त कर देता है, उस विकासकत्व का नाम प्रसाद है। अतः यों समझना चाहिए कि गुण मुख्यतया रस के धर्म हैं, और इन्हें जो रचना आदि के धर्म कहा जाता है, सो औपचारिक है।
पर, साहित्यदर्पणकार ने काव्यप्रकाशकार के आशय को बिना समझे ही उसका खंडन कर दिया। उन्होंने पहले तो काव्यप्रकाशकार की इसी बात को लिख दिया कि 'गुण[२] शौर्यादिक की तरह रस के धर्म हैं; पर आगे जाकर यह निश्चित किया कि द्रुति, दीप्ति और विकासरूपी चित्तवृत्तियों का नाम ही माधुर्य, ओज और प्रसाद है, तथा अपने इस सिद्धांत के अनुसार काव्यप्रकाशकार के विषय में यह कह डाला कि माधुर्य[३] को जो द्रुति का कारण बताया जाता है, वह ठीक नहीं; क्योकि द्रुति स्वयं रसरूप आह्वाद से अभिन्न है, इस कारण, जैसे रस कार्य नहीं हो सकता, वैसे यह भी कार्य नहीं हो सकती। पर उन्होंने यह सोचने का कष्ट नहीं उठाया कि काव्यप्रकाशकार ने द्रुति को माधुर्य माना कब है? वे तो शृंगारादि में जो द्रुति-जनकता (प्रयोजकता) रहती है, उसे