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ध्वनिकार के अनुयायियों ने काव्य के आत्मादिक का विवरण आलंकारिक भाषा में यों किया है—'शब्द और अर्थ काव्य के शरीर हैं, रस आदि आत्मा हैं, गुण शूर-वीरता आदि की तरह हैं, दोष कानेपन आदि की तरह हैं और अलंकार आभूषणों की तरह।'[१] इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि रसों के साथ गुणों का अंतरंग संबंध है और अलंकारों का बाह्य; एवं गुण काव्य की आत्मा रस को उत्कृष्ट करते हैं, और अलंकार उसके शरीर रूप शब्द और अर्थ को।
साथ ही गुणों की वास्तविकता का पता लगाने के लिये इस बात का भी अन्वेषण हुआ कि प्राचीन लोग जिन्हें गुण शब्द से व्यवहृत करते आए हैं, उन बीसों में से, यदि नवीन प्रणाली से जिन दोषों का विवेचन किया गया है, उनके प्रभाव रूप गुणों को पृथक कर दिया जाय, तो क्या बच रहता है। सोचने पर विदित हुआ कि शेष सब गुण कोमल, कठोर और स्पष्टार्थक तीन प्रकार की रचनाओं में विभक्त किए जा सकते हैं। इस तरह वे बीस के तीन हुए और उनके नाम भामह की प्रणाली से माधुर्य, ओज और प्रसाद रखे गए।
इसके अनंतर यह भी सोचा गया कि कौन सी रचना किस रस के अनुरूप है? विमर्श करने पर विदित हुआ कि शृंगार, करुण और शांत रसों के लिये कोमल रचना की; वीर,
- ↑ "काव्यस्य शब्दायौ शरीरम्, रत्यादिश्चात्मा, गुणाः शौर्यादिवत्, अलङ्कारा कटककुण्डलादिवत्" इति।