[९८]
अलंकृतमपि श्रव्यं न काव्यं गुणवर्जितम्।
गुणयोगस्तयोर्मुख्यो गुणालङ्कारयोगयोः॥
अर्थात् अलंकारों से युक्त भी गुणों से रहित काव्य सुनने के योग्य नहीं होता; अतः काव्य के गुणों और अलंकारों से युक्त होने की अपेक्षा गुणों से युक्त होना मुख्य है।
काव्यप्रकाशकारादिकों का भी यही मत है कि गुण सीधे रसों को उत्कृष्ट बनाते हैं और अलंकार शब्दों और अर्थों के द्वारा, अतः गुण अलंकारों से अधिक अपेक्षित हैं।
इस तरह यह सिद्ध हुआ कि साहित्यशास्त्र में गुणों का स्थान अलंकारों से ऊँचा और रसादि व्यंग्यों से नीचा है, और वे अलंकारों की अपेक्षा अधिक आवश्यक हैं।
गुण क्या वस्तु है
अब हम इस बात का विचार करेंगे कि गुण हैं क्या वस्तु; उन्हें लोग अब तक किस किस रूप मे समझते आए हैं।
महामुनि भरत दोषों का वर्णन करने के अनंतर कहते हैं कि "गुणा विपर्ययादेषाम्।" अर्थात् दोषों के विपरीत जो कुछ वस्तु है, वे गुण हैं।
अग्निपुराण में लिखा है कि "जो[१] काव्य में बड़ी भारी शोभा को अनुगृहीत करता है, अर्थात् पदावली को शोभा
- ↑ 'य काव्ये महतीं छायामनुगृह्णात्यसौ गुण।'