पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/९२

यह पृष्ठ प्रमाणित है।
(७८)
छठा प्रकरण।
हिन्दी भाषा की विभक्तियाँ, सर्वनाम, और उसकी क्रियायें

हिन्दी विभक्तियों के विषय में कुछ विद्वानों ने ऐसी बातें कही हैं, जिससे यह पाया जाता है, कि वे विदेशीय भाषाओं से अथवा द्राविड़ भाषा से उसमें गृहीत हुई हैं, इसलिये इस सिद्धान्त के विषय में भी कुछ लिखने की आवश्यकता ज्ञात होती है। क्योंकि यदि हिन्दी भाषा वास्तव में शौरसेनी अपभ्रंश से प्रसूत है, तो उसकी विभक्तियों का उद्गम भी उसी को होना चाहिये। अन्यथा उसकी उत्पत्ति का सर्वमान्य सिद्धान्त संदिग्ध हो जावेगा। किसी भाषा के विशेष अवयव और उसके धातु किसी मुख्य भाषा पर जब तक अवलम्बित न होंगे, उस समय तक उससे उसकी उत्पत्ति स्वीकृत न होगी। ऐसी अनेक भाषायें हैं, जिनमें विदेशी भाषाओं की बहुत सी संज्ञायें पाई जाती हैं परिवर्तित रूप में उनमें उन भाषाओं की कुछ क्रियायें भी मिल जाती हैं। यदि केवल उनके आधार से हम विचार करने लगेंगे तो उस विदेशी भाषा से ही उनकी उत्पत्ति माननी पड़ेगी, किंतु यह बात वास्तविक और युक्तिसंगत न होगी। दूसरी बात यह कि एक ही भाषा में विभिन्न भाषाओं के अनेक व्यवहारिक शब्द मिलते हैं, विशेष करके आदान-प्रदान अथवा खान पान एवं व्यवहार सम्बन्धी। यदि ऐसे कुछ शब्दों को ही लेकर कोई यह निर्णय करे कि इस भाषा की उत्पत्ति उन सभी भाषाओं से है, जिनके शब्द उसमें पाये जाते हैं, तो कितनी भ्रान्ति जनक बात होगी, और इस विचार से तथ्य का अनुसंधान कितना अव्यवहारिक हो जावेगा। इन्हीं सब बातों पर दृष्टि रख कर किसी भाषा का मूल निर्धारण करने के लिये उससे सम्बन्ध रखनेवाले मौलिक आधारों की ही मीमांसा आवश्यक होती है। बिभक्तियों और प्रत्ययों की गणना भाषा के मौलिक अंगों में ही की जाती है। इस लिये विचारणीय यह है कि हिन्दी भाषा की विभक्तियां कहां से आई हैं, और उनका आधार क्या है।

"डाक्टर 'के, कहते हैं कि हिन्दी का 'को' (जैसे-हमको) और