पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/७२३

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अन्य ग्रन्थ मो उपयोगी हैं और उस न्यूनता को पूर्ति करते हैं जो चिर- काल से हिन्दी साहित्य में चलो आतो थो । यहीं पर मुझको पंडित राधाकृष्ण झा एम० ए० को स्मृति होती है। आप अर्थशास्त्र के बहुत बड़े विद्वान थे। दुःख है कि अकाल काल-कवलित हुए । हिन्दी संसार को उनसे बड़ी बड़ी आशाएं थों। उनके बनाये हुए 'प्राचीन-शासन-पद्धति', 'भारत को साम्पत्तिक अवस्था' आदि ग्रंथ अपने विषय के अनूठे ग्रंथ हैं, वरन हिन्दो-भाण्डार के ग्न हैं। इनके अतिरिक्त श्रीयुत् सुख-संपतिराय भांडारी का नाम भी उल्लेख-योग्य है। इन्हों ने भो अर्थशास्त्र के कुछ ग्रंथों की रचना की है।

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समालोचना सम्बन्धी ग्रंथ।

 साहित्य के लिये समालोचना की बहुत बड़ी आवश्यकता है। समालोचक योग्य मालाकार समान है. जो वाटिका के कुसुमित पल्लवित पौधों, लता-बलियों, यहां तक कि विश पर को हरी-भरी घासों का भी काट छाँट कर ठोक करता रहता है, और उनको यथाराति पनपने का अवसर देता है। समालाचक का काम बड़े उत्तरदायित्व का है। उसको सत्य-प्रिय होना चाहिये, उसका सिद्धान्त 'शत्रोरपि गुणावाच्या दोषावाच्या गुगेगपि होता है। प्रतिहिंसा-परायण की समालोचना समालाचना नहीं है। जो समालोचना शुद्ध हृदय से साहित्य का निर्दोष रखने और बनाने के लिये की जाती है वही आदरणीय और साहित्यके लिये उपयोगिनी होता है । समालोचक की तुला ऐसी होनी चाहिये जो ठीक ठीक तौले । तुला पलड़े को अपनी इच्छानुसार नीचा ऊँचा न बनावे यदि वास्तविक समालोचना पृत-सलिला सुरसरी है तो प्रतिहिंसा-वृत्ति मया आलोचना कर्मनाशा । वह यदि सब प्रकार को मालिनताओं को दूर भगाती है ता यह किये हुये कर्म का भी नाश कर देती है। हिन्दो संसार में आज कल समालोचनाओं को धूम है। परन्तु उक्त कसोटी के अनुसार आलोचना का कार्य करने वाले दो चार सज्जन ही हैं। फिर भी यह नहीं कहा जा सकता कि जितनी समालोचनायें