पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/७११

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साधन हैं। इसो लिये उपन्यासों का उत्तर दायित्व कितना बढ़ गया है, यह कहने की आवश्यकता नहीं। परंतु दुःख है कि इस उत्तर दायित्व के समझने वाले इने गिने सजन हैं। आज कल अपनो अपनी डफली और अपना अपना राग वाली कहावत ही चरितार्थ हो रही है। जो लोग श्रृंगार रस की कुत्सा करते तृप्त नहीं होते, उन्हीं लोगों को उपन्यासों में अश्लीलता का अभिनय करते अल्प संकोच भी नहीं होता। देश प्रेम का सच्चा राग, जाति-हित की सच्ची प्रतिध्वनि, आज भी बहुत थोड़े उप- न्यासों में सुन पड़ती है। जिन दुर्वलताओं से हिन्दू समाज जर्जर हो रहा है, जिन कारणों से दिन दिन उसका अधः पतन हो रहा है, जो फूट उसको दिन दिन ध्वंस कर रही है. जो अबांछनीय जातिभेद की कहरता उसका गला घोंट रही है, जिन अन्ध विश्वासों के कारण वह रसातल जा रहा है, जो रूढ़ियाँ मुंह फैला कर उसको निगल रही हैं. क्या सच्चाई के साथ किसी उपन्यास लेखक की उस ओर दृष्टि है ? क्या हिन्दुओं को नाड़ी टटोल कर किसी उपन्यासकार ने हिन्दुओं को वह मंजीवन-रस पिलाने की चेष्टा की है, जिससे उनके ग्ग रग में बिजली दौड जाय ? स्मरण रखना चाहिये कि हिन्दू जातीयता की रक्षा ही भारतीयता की रक्षा है क्योंकि हिन्दुओं में ही ऐसे धार्मिक भाव हैं. जो विजातीयों और अन्य धर्मावल- म्वियों से भी आत्मीयता का निर्वाह कर सकते हैं। सागंश यह कि आज कल के अधिकांश उपन्यास मनोवृत्ति-मूलक हैं। थोड़े हो उपन्यास ऐसे लिखे जाते हैं जिनमें आत्म भावों को देश जाति अथवा धर्म को बलिबेदी पर उत्सर्ग करने की इच्छा देखी जाता है। इधर यथाथ रीति से दृष्टि आकर्पित होना हो वांछनीय है ।।

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जीवन-चरित

जीवन चरित्र की ग्चना भी साहित्य का प्रधान अंग है। जोवन- चरित्र और उपन्यास में बड़ा अंतर होता है। उपन्यास काल्पनिक भी होता है। किन्तु जोवन चरित किसी महापुरुष की वास्तविक जीवन-