पीयूष प्रवाह, नामक अपने मासिक पत्र को चिरकाल तक निकालते रहे। धर्म क्षेत्र में उनका कार्य जितना ठोस है, उतना ही साहित्य क्षेत्र में। उनका ‘गद्य मीमांसा' नामक हिन्दी में लिखा गया ग्रंथ भी अपूर्व है, उनके पहले किसी ने ग्रंथ लिख कर गद्य शैली निर्धारण की चेष्टा नहीं की थी। उनका गद्य भी विलक्षण और कई प्रकार का होता था, कुछ उदाहरण लीजिये:-
“सम्बत् १९३४ में एंग्लो की उत्तम वर्ग की पढ़ाई मैंने समाप्त की। इसी वर्ष अभिनव स्थापित काश्मीराधीश के संस्कृत कालेज में मैंने नाम लिखाया। वहाँ परीक्षा दी। कालेज की प्रधान अध्यक्षता जगत्-प्रसिद्ध स्वामी विशद्धानंद जो के हाथ में थी, उनने यावत पंडितों के समक्ष मुझे ब्यास पद दिया। यों तो मैं पहले से ही व्यास जी कहा जाता था, परन्तु अब वह पद और पक्का हो गया।"
“थोड़े ही दिनों के ही अनन्तर पोरबन्दर के गोस्वामी बल्लभ कुला- वतंस श्री जीवनलाल जी महाराज से मेरा परिचय हुआ । वे मुझसे कुछ पढ़ने लगे, उनके साथ कलकत्ते गया। वहाँ सातन धर्म के विभिन्न विषयों पर मेरी २८ वक्तृतायें हुई। कई सभाओं में बंगदेशीय पण्डितों से गहन शास्त्रार्थ हुये। "
“अबदेखिये वही वेदान्तियों के सिद्धान्त मूर्तिपूजा द्वारा कैसे सुखपु- वक सिद्ध होते हैं । जगत का सम्पर्क छोड़ परमात्मा में एकदम लीन हो जाना, बात तो इतनी सी है और इसी के साधने में अहन्ता ममतादि का त्याग है तो जगन्मिथ्या, जगन्मिथ्या कहते कहते, तो आप लोगों को बत- लाया ही जाचुका है कि “पादांगुष्ठ शिरोपाग्निः कदामौलिमवाप्स्यति और बाबा किसी अधिकारी को उसी ढंग से शीघ्र जगत् से असम्पर्क हो, और आत्मानुभव हो तो हम उसके लिये कुछ मना भी नहीं करते, वह ब्रह्मानंद में डूबे, पर देखिये तो भक्तों का एक कैसा अद्भुत रास्ता है ।"
"आहा ! इस समय भी स्मरण करनेसे ऐसा जान पड़ता है, कि मानों रात्रि का अंधकार क्रमसे पीछे हट चला है. चिड़ियोंने धीमे धीमे कोमल सुर