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विजातीय शब्दों को ग्रहण करना ही पड़े तो किस प्रकार उनको संस्कृत रूप दे दिया जावे। दूसरे स्थान पर वह यह कहते हैं, कि यदि विदेशी अथका बिजातीय शब्दों की मुख्य रूप में ही लिखना पसन्द हो तो, यह भो कर सकते हो, परन्तु उसको संस्कृत का शब्द ही मान लो, क्योंकि उसमें यह शक्ति है कि अन्य भाषा के शब्दों को व्युत्पत्ति वह उसी अर्थ में कर लेती है। निम्न लिखित अवतरण को पढ़िये और उसमें उनका पाण्डित्य देखियेः-

  "यदि हम आस्मान शब्द को अपने व्यवहार में लावें तो उसे असमान शब्द का अपभ्रंश मार्ने 'आसमन्तात्समानानमेव रूपं यदस्ति सर्वत्र विद्यते नचघटादिपु विकृतं भवति तदा समानम् । जो सब घटादि पदार्थों में एक ही रूप रहता, जिसमें किसी प्रकार का विकार नहीं होता, वह आसमान नामक आकाश है, उसी का अपभ्रंश आस्मान हो गया । बन्ध धातु से उर प्रत्यय करने पर वन्धुर शब्द बनेगा, जिस समुद्र तट पर जहाज़ बाँधे जावें, वह स्थान बन्धुर हुआ. उसी का अपभ्रंश बन्दर शब्द को मान लेना चाहिये । अथवा स्तुति अथ बाले बदि धातु से औणादिक अर प्रत्यय करने पर प्रशस्त काय्यसाधक स्थान का नाम बन्दर हो सकता है”।
  पंडित जी का विचार आत्म निर्भग्ता मूलक है. उसका आधार वह आर्य संस्कृति है, जिसको परावलम्वन प्रिय नहीं और जो सर्वथा शुद्धता वादी है। किन्तु परिस्थिति उनके विचारों के अनुकूल नहीं थी, और आवश्यकताओं की दृष्टि किसी अन्य लक्ष्य की ओर थी. इसलिये उनका कथन नहीं सुना गया, किन्तु हिन्दी भाषा विकास की चर्चा के समय उनका स्मरण सदा होता रहेगा। जनता की बोलचाल की भापा बड़ो शक्ति शालिनी होती है. भाषा कितनी ही साहित्यिक बने परन्तु वह उसके प्रभाव से मुक्त नहीं हो सकती विदेशीय और विजातीय जो शब्द अधिक प्रचलित हो जाने के कारण बोलचाल में गृहोत हो जाते हैं. उनका सर्वथा त्याग असम्भव है। फ़ारसी अग्बी, अँगरेजी आदि भाषाओं के जो सहस्रों शब्द आज बोलचाल में प्रचलित हैं. उनके स्थान पर गढ़े शब्द रखने से भाषा को जटि-