पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/६७५

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अनुराग भी उनके हृदय में उत्पन्न हो गया । पण्डितजी संस्कृत भाषा के प्रकाण्ड पण्डित ओर अपने समय के अद्वितीय वेदवेत्ता थे। वेद विद्या पारंगत सामाश्रमी के स्वर्गारोहण के उपरान्त कलकत्ता के संस्कृत कालेजके वेदाचार्य का प्रधान पद आपको ही प्राप्त हुआ था। आप में सत्य प्रियता इतनी थी कि वेद मंत्रों के अर्थ में मत भिन्नता उत्पन्न होने के कारण ही आपका सम्बन्ध स्वामी दयानन्द से छूटा। उन्होंने जैसे मार्मिक और विचारपूर्ण लेख वैदिक विपयों पर लिखे, शास्त्रीय सिद्धान्तों का विवेचन जिस विद्वत्ता के साथ किया। वह प्रशंसनीय ही नहीं अभूतपूर्व है। ऐसे अपूर्व विद्वान का हिन्दी क्षेत्र में अवतोण होना हिन्दी के लिये अत्यन्त गौरव को बात थी। उन्हों ने जैसे गम्भीर धार्मिक निवन्ध हिन्दी भाषामें लिखे हैं, जैसे शास्त्रीय ग्रंथ ग्चे हैं, ब्राह्मण सर्वस्व'. निकाल कर हिन्दी भाषा को जो गौरव प्रदान किया है, उसके लिये हिन्दी संसार विशेष कर धार्मिक जगत उनका सदैव कृतज्ञ रहेगा। वे वाग्मी भी बड़े थे. जिन्होंने उनके पांडित्यपूर्ण व्याख्यान सुने हैं, वे जानते हैं कि उनका भाषण कितना उपपत्तिमूलक और प्रौढ़ होता था। ऐसा ही उनका हिन्दी गद्य भी है । जहां तर्क पूर्ण और विवेचनात्मक शास्त्रीय विषय लिखा गया है. वहां उनकी भाषा गहन से गहन है ! परन्तु माधारण विषयों को उन्होंने बड़ी सुलझी और परिष्कृत भाषा में लिया है। उनके गहा में प्रवाह और प्राञ्जलता दोनों है. मापा भी उनकी मँजी हुई है। देग्वियः --

 " आत्म गौरव का संस्कार जागे विना जाताय अभ्युत्थान का होना असम्भव है और जहाँ को भापा अपने देश के उपकरणों में संगठित नहीं वहाँ आत्म गौरव के संस्कार का आविर्भाव होना असम्भव है। क्योंकि ऐसी दशामें मंसार यही कहेगा कि "कहीं की ईंट कहींका गेड़ा, भानमती ने कुनबा जोड़ा"। जहां आत्मगौरव का अभाव है, उग्म देश वा जाति का जातोय अभ्युत्थान होना भी असंभव ही जानो । ”
  
 “जो मनुष्य ऐसे वंश में उत्पन्न हुआ है. जिसमें गौरव का चिन्ह भी नहीं, न कोई वैसा कर्तब्य पालन है, उसका उत्थान होना संभव नहीं है। क्योंकि जन्मान्तरीय संस्कार स्वच्छ होने पर भी उन संस्कागं के उद-