पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/६७०

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जाता है, तद्रूप पावस के आगमन से, इस सारे संसार ने भी नया रंग रूप पकड़ा, भूमि हरी भरी होकर नाना प्रकार को घासों से सुशोमित भई, मानों मारे मोद के रोमांच की अवस्था को प्राप्त भई । सुन्दर हरित पत्रा- वलियों से भरित तरुगनों की सुहावनी लतायें. लिपट लिपट मानों मुग्धा मयंक मुखियों को अपने प्रियतमों के अनुरागालिंगन को बिधि बतलातीं।"

२-"दिव्य देवी श्री महाराणी बड़हर लाख झंझट झेल, और चिरकाल पर्यंत बड़े बड़े उद्योग और मेल से, दुःख के दिन सकेल. अचल ‘कोर्ट का पहाड़ ढकेल, फिर गद्दी पर बैठ गई।"

ईश्वर का भी क्या खेल है कि कभी तो मनुष्य पर दुःख की रेल पेल है और कभी उस पर सुख की कुलेल ।

साहित्यिक गद्य मिश्र जो और चौधरी जी दोनों का है, परन्तु अन्तर यह है कि मिश्र जी का गद्य उद्विग्नकर है, और चौधरी जी का मनोहर । मिश्र जी का वाक्य दूर तक चलता है, परंतु चौधरी जी का वाक्य छोटा छोटा होता है, इस लिये उसमें हृदयग्राहिता अधिक है। मिश्र जी का जोवन सादा था, और वे पण्डित प्रकृति के थे. इस लिये उनकी रचना में न तो चटक मटक है, न लचकीलापन । चौधरी जी अमीगना ठाट के आदमी थे, गसिक तो थे ही, मनचले और बांके तिरछे भी, इस लिये उनकी भाषा भी कहीं चटकीली है, कहीं फड़कती। कहीं अलंकृत है, कहीं रसीली । कहीं ऐंठती चलती है, कहीं मचलतो। कहीं अलंकारों के भार से दब जाती है कहीं बड़े ठाट से तनी फिरती है। इस लिये अन्तर होना स्वाभा- विक है। चौधरी जी समालोचक भी थे, वरन् सच पूछिये तो हिन्दी साहित्य में समालोचना प्रणाली का आम उन्हीं से हुआ ।।

  एक ओर तो पं० गोबिंद नागयण मिश्र और पं० वदरोनारायण चौधरी संस्कृत के तत्सम शब्दों के प्रयोग की ओर विशेष दत्तचित्त होकर हिन्दो गद्य में एक विचित्र सरसता भर रहे थे. दूसरी ओर पं० बालकृष्ण भट्ट शैली में उक्त दोनों महोदयों से बहुत कुछ भिन्नता रखते हुये वही