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( ६५१ ) ग्रामीण बातों और कहावतों से उन्हें प्रेम है। उनकी रचना को प्रधान विशेषता यह है कि वे मुहावरों आदि का व्यबहार अपनी भाषा में सफलता के साथ करते हैं। देश ममता उनमें इतनी थी, कि अपने यहाँ की छोटी छोटी बातों को भी महत्व देते थे.और उनका प्रतिपादन इस ढंग से करते थे, कि उनकी इस प्रकार की लेख माला पढ़ कर चित्त प्रफुल्ल हो उठता है। किन्तु उनका भाग्य कभी नहीं चमका। अपने ब्राह्मण, नामक मासिक पत्र को भी वे थोड़े ही समय तक चला सके ।दैनिक 'हिन्दोस्तान' के सम्पादक हो कर काला काँकर गये, परन्तु कुछ दिन वहाँ भी ठहर नहीं सके। उनके गद्य के कुछ नमूने देखिये -
५-- "घर की मेहरिया कहा नहीं मानती, चले हैं दुनिया भर को उपदेश देने । घर में एक गाय बाँधी नहीं जाती, गोरक्षणी सभा स्थापित करेंगे। तन पर एक सूत देशी कपड़े का नहीं है. बने हैं देशहितैषी ।साढ़े तीन हाथ का अपना शरीर है, उसकी उन्नति तो कर नहीं सकते,देशोन्नति पर मरे जाते हैं। कहाँ तक कहिये हमारे नौसिखिया भाइयों को माली न लिया का आजार हो गया है. करते धरते कुछ नहीं हैं, बक बक बाँधे हैं।"
सच है 'सब ते भले हैं मूढ़ जिन्हें न व्याप जगत गति, मज़े से पगई जमा गपक बैठना. खुशामदियों से गप मारा करना' जो कोई तिथ त्योहार पड़ा, तो गङ्गा में बदन धो आना. गङ्गापुत्र को चार पैसे दे कर संत मेत में, धरम मूरत धरमा औतार का खिताब पाना, संसार परमार्थ तो दोनों बन गये, अब काहे को है. है काहे को ग्वै । मुँह पर तो कोई कहने ही नहीं आता. कि राजा साहब कैसे हैं. पीठ पीछे तो लोग नवाब को भी गालियां देते हैं.इससे क्या होता है । आप रूप तो आप हैं, ही 'दुहूं हाथ मुद मोदक मोरे'उनको कभी दुख काहे को होता होगा। कोई घर में मरा मराया तो रो डाला। बम आहार, निद्रा. भय, मैथुन के सिवा पाँचवी बात ही क्या है, जिसको झीग्★ । आफ़त तो बेचारे ज़िन्दा दिलों की है,जिन्हें न यो कल न वो कल। जब स्वदेशी भाषा का पूर्ण प्रचार था, तब