पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/६६३

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

(६४६)

कारण यह है कि यहां वे अपने उद्गार को व्यक्त करने के लिये कुछ ऐसे वाक्य लिखना चाहते थे जो साधारण बोलचाल में नहीं आते । ऐसी परिस्थिति में अपनी शब्दावली चुनने के लिये उनके सामने दो मार्ग थे,या तो वे संस्कृत के अपरिचित, किन्तु पाठकों के अनुकूल सँस्कारों के कारण सहज ही परिचित होने की क्षमता रखने वाले शब्दों को चुनें अथवा फारसी या अरबी के अप्रचलित और विदेशी शब्दों को। भारतेन्दु जी ने जैसी शब्दावली चुनी, उस परिस्थिति में प्रत्येक विचारशील लेखक वैसी ही शब्दावली ग्रहण करने को ओर प्रवृत्त होगा। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि भारतेन्दु ने हिन्दी गद्य के विकास का एक स्वाभाविक पथ तैयार कर के उसे कार्य-क्षेत्र को ओर अग्रसर किया ।।

हिन्दी गद्य का कार्य-क्षेत्र भी बदलता जा रहा था और उसको समस्त शक्तियों को प्रस्फुटित करनेवाले अवसर प्रस्तुत हो रहे थे। पाश्चात्य सभ्यता के सम्पर्क से जो हिन्दू समाज नितान्त बिचलित और सम्मोहित हो गया था. वह बंगाल में राजा राममोहन राय और उत्तरी भारत में स्वामी दयानन्द सरस्वती के प्रभाव से नव जीवन लाभ कर रहा था। राजा राममोहन राय ने उपनिषदों के महत्व की ओर शिक्षित समाज का ध्यान खींचा. स्वामी दयानन्द वेदों की ओर । इस उद्योग का परिणाम यह हुआ कि शिक्षित जनता में वह आत्म विश्वास फिर उत्पन होने लगा जो उसके पहले लुप्त प्राय था। प्रायः इसी समय समाचार-पत्रों का भी उदय हुआ।आत्माभिमान के जागरित होते ही देशानुराग के भाव का विकास भी हुआ।राजा शिव प्रसाद और राजा लक्ष्मण सिंह ने तो इस ओर ध्यान नहीं दिया किन्तु बाबू हरिश्चन्द्र और उनके सहयोगियों ने देश और समाज के कष्टों को गहराई के साथ अनुभव करके भिन्न भिन्न रूपों में उन्हें व्यक्त किया।यदि कहीं उन्होंने मर्मभेदी बातें कहीं, कहीं पाठक के हृदय को करुणा और अनुताप के भावों से पूरित किया तो सामाजिक त्रुटियों को लक्ष्य कर के कहीं ऐसा व्यंगपूर्ण प्रहार और आक्षेप भी किया कि कुछ असहनशील पाठक की आन्तरिक सहानुभूति का उनसे चिरविच्छेद हो गया। उनका