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(६४८) करती थी । यदि वे राजा शिवप्रसादकी सो फ़ारसी के भारसे दबी हुई हिन्दी नहीं लिखते तो राजा लक्ष्मण सिंह अथवा 'प्रेमसागर' रचयिता लल्लू लाल की तरह उन फ़ारसी शब्दों से भी नहीं बचते थे जो हिन्दी की बोलचाल में आगये हैं। नीचे भारतेन्दु जी की भाषा के दो नमूने मैं उपस्थित करता हूं। इन्हें देख कर आप यह समझ सकेंगे कि भारतेन्दु जो की भाषा सम्बन्धी निति किस प्रकार उस समय के एक महत्वपूर्ण प्रश्न को हल करती थीः-
१ -- "नाम बिके,लोग झूठा कहें,अपने मारे मारे फिरें,पर वाहरे शुद्ध 'बेहयाई'-पूरी निर्लज्जा ! लाज को जूतों मार के.पीट पीट के निकाल दिया है । जिस मुहल्ले में आप रहते हैं लाज की हवा भी वहाँ नहीं जाती। हाय, एकबार भी मुह दिखा दिया होता तो मत-वाले मतवाले बने क्यों लड़ लड़ कर सिर फोड़ते ? काहे को ऐसे वेशरम मिलेंगे ?'
२ -- 'जब मुझे अँगरेज़ी ग्मणी लोग मेदसिंचित केशराशि.कृत्रिम कुंतल जूट.मिथ्या रत्नाभरण, विविध वर्ण वसन से भूपित, क्षीण कटि देश कसे. निज निज पतिगण के साथ प्रसन्न वदन इधर से उधर फर फर कल को पुतली की भाँति फिरती हुई दिखलाई पड़ती हैं. तब इस देश की सीधी सादी स्त्रियों की हीन अवस्था मुझको स्मरण आती है और यही बात मेरे दुःख का कारण होती है।”
अवतरण नम्बर एक को देखिये । उसमें वहयाई', 'वेशरम जैसे शब्दों का प्रयोग निस्संकोच भाव से किया गया है और यह भी स्वीकार करना पड़ता है कि इन शब्दों ने उक्त अवतरण की सरमता बढ़ाने में बहुत कुछ योग दिया है। संस्कृत के निर्लज्ज और निर्लज्जता शब्दों का प्रयोग यहां किया जा सकता था, किन्तु 'बहयाई' और 'बेशरमी' का बोलचाल में इतना अधिक अधिकार हो गया है कि उनको उपेक्षा, लेखक अपनो भाषा की स्वाभाविकता और सहज हो सम्पादित हो सकने वाली सरसता को संकट में डाल कर ही कर सकता था। दसरे अवतरण में भारतेन्दु संस्कृत के तत्सम शब्दों हो के प्रयोग की ओर अधिक प्रवृत्त पाये जाते हैं। इसका