पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/६६०

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जिन्हों ने घोड़े के आकार का एक मान यन्त्र कलायुक्त बनाया था कि जो एक कच्ची घड़ी में ग्यारह कोस और एक घण्टे में सत्ताइस कोस जाता था वह भूमि और अन्तरिक्ष में भी चलता था और दूसरा पंखा ऐसा बनाया था कि बिना मनुष्य के चलाये कला-यन्त्र के बल से नित्य चला करता और पुष्कल वायु देता था जो ये दोनों पदार्थ आजतक बने रहते तो योगेपियन इतने अभिमान में न चढ़ जाते.,।

इन अवतरणों की भाषा पर ध्यान दीजिये, द्वितीय अबतरण में फ़ारसो या अरबी का एक भी शब्द नहीं है. संस्कृत के तत्सम शब्दों ही की उसमें प्रधानता देख पड़ती है। पहले अवतरण में 'साहब' 'दग्यापत' निगाह 'तरजुमे' आदि शब्द फारसी के है। राजा लक्ष्मणसिंह की भाषा में जो सरलता और मधुरता है उसका स्वामी जी की भाषा में सर्वथा अभाव है।कारण इसका यह है कि स्वामी जी को एक नवीन दिशा में हिन्दी का उपयोग करना पड़ा । जिस प्रकार का शास्त्रार्थ उन्होंने प्रचलित किया वैसा तब तक अज्ञात था। मौलवियों.पादरियां और पंडितों के साथ विवाद में पड़ कर हिन्दी भाषा से उन्हें ऐसा काम लेना पड़ा जो कभी लिया न गया था। दूसरी बात यह कि उनके विषय शास्त्रीय थे, वह भी वादग्रस्त.साहित्यक नहीं थे.अतएव उनकी भाषा में ककशता और रूखापन मिलना आश्चर्यजनक नहीं॥
राजा शिवप्रसाद. राजा लक्ष्मणसिंह और स्वामी दयानन्द सरस्वती सम सामयिक थे । इन तीनो लेखकों ने हिन्दी गद्य में तीन प्रकार की शैलियां उपस्थित की. यह आप लोगों ने देख लिया। अब मैं आप को हिन्दी गद्य-साहित्य के एक ऐसे उज्ज्वल नक्षत्रको निर्मल प्रभा से परिचित करना चाहता हूं जिसने शैली-विकास-विषयक प्रयत्न को प्रायः पूर्णता का रूप प्रदान कर के स्थिरता सञ्चार करने में सफलता प्राप्त को. यह उज्ज्वल नक्षत्र भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र है । मारतेन्दु बाबू ने जेसे सामयिक हिन्दी पद्य के विकास में पथ-प्रदर्शक का काम किया वैसे ही गदा के विकास में भी उनका सहयोग बहुत महत्वपूर्ण है। बात यह है कि साहित्यिक शैलियों