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तक कचहरी में फ़ारसी हरफ़ जारी हैं इस देश में संस्कृत शब्दों को जारी करने की कोशिश बे फ़ायदा होगी।" राजा शिवप्रसाद क्यों फ़ारसी अ़रबी शब्दों से मिश्रित हिन्दी लिखने के पक्षपाती थे, यह बात आशा है, अब आपलोगों की समझ में आगयी होगी, उनके गद्य का निम्नलिखित नमूना देखने से यह विषय और स्पष्ट हो जावेगा।

"हम लोगों की ज़बान का व्याकरण (चाहे आप उसको उर्दू कहें चाहे हिन्दी) किसी क़दर क़ायम हो गया है। जो बाक़ी है जिस क़दर जल्द क़ायम हो जावे बेहतर। इस ज़बान का दरवाज़ा हमेशा खुला रहा है और अब भी खुला रहेगा। उसमें शब्द बेशक आये और बराबर चले आते हैं, क्या भूमियों की बोली, क्या संस्कृत क्या यूनानी (यहाँ तक कि यूनानी लफ़्ज़ 'दीनार' पुगनी संस्कृत पोथियों में भी पाया जाता है और नानक भी यूनानीसे निकला है,) क्या रूमी, क्या फ़ारसी, क्या अ़रबी, क्या तुर्की, क्या अँगरेज़ी क्या किसी मुल्क के शब्द जो कभी इस दुनिया के पर्दे पर बसे हैं या बसते हैं, सब के वास्ते इसका दरवाज़ा खुला रहा है और अब भी खुला रहेगा। अब इसे बन्द करने की कोशिश करना सिवाय इसके कि किस क़दर मूजिब हमारे हानि और नुक़सान का है और कैसा असम्भव है, यह सोचना चाहिये। रोक टोक बेशक मुनासिब है और यही हो सकती है। वह कौन मनुष्य है कि अपने ताल में जिससे तमाम गांव सिंचता हैं पानी आने को नालियाँ बंद करे। गंगा की धाग का बहना ताे आप बन्द नहीं कर सकते। लेकिन यह अवश्य कर सकते हैं कि बाँध और पुश्ते बना कर उन्हीं के दर्मियान उसको रखें।'

उक्त अवतरण में 'कदर', 'क़यम', बाक़ी', बेहतर', 'ज़बान', 'दरवाज़ा', 'बेशक', 'लफ़्ज़', 'मुल्क', 'दुनिया', 'कोशिश', क़दर', 'मूजिब', नुक़सान', 'मुनासिब', 'दर्मियान' आदि शब्द फ़ारसी से लिये गये हैं। 'व्याकरण','शब्द', 'हानि', 'अवश्य' आदि बहुत थोड़े से ही शब्द इसमें संस्कृत के हैं। राजा शिव प्रसाद की भाषा सम्बन्धी यह नीति सफल होने-