पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/६५४

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अपना पाँव आगे बढ़ा सकती, इस लिये उसकी उस काल की उन्नति में राजासाहब का हाथ होना स्पष्ट है। सन् १८४५ में उन्होंने 'बनारस अख़बार' नामक जो समाचार पत्र निकाला था, उसकी भाषा यद्यपि फ़ारसी के तत्सम शब्दों से लदी हुई होती थी, परन्तु उसको वे देवनागर अक्षरों में ही प्रकाशित करते थे और उसे हिन्दी का समाचार-पत्र ही कहते थे। इन बातों से उनका हिंदी प्रेम प्रकट होता है, परन्तु हिन्दी की भाषा के विषय में उनका कोई निश्चित सिद्धान्त नहीं था, कभी वे उसे फ़ारसी शब्दों से मिश्रित लिखते थे और कभी संस्कृत शब्दों से गर्भित। कभी कभी उन्होंने बड़ी सरल हिंदी लिखी है परन्तु बोलचाल पर दृष्टि रख कर उसमें भी फ़ारसी ओर अ़रबी के ऐसे शब्दों का त्याग नहीं किया, जिनको सर्व साधारण बोलते और समझ लेते हैं।।

सन् १८३५ में अँगरेज़ी और फ़ारसी लिपि में लिखी जानेवाली तथा फ़ारसी और अ़रबी के शब्दों तथा खड़ी बोली की क्रियाओं के सहयोग से उत्पन्न उर्दू भाषा सर्कारी कचहरी की भाषा बन गई। यह उर्दू का सौभाग्य सूर्योदय था। इस घटना से हिन्दी-गद्य के विस्तार कार्य को बहुत बड़ा धक्का लगा। उर्दू का यों भी बोलचाल में प्रचार था। किन्तु इस घटना से उसे इतना अधिक प्रश्रय मिला कि वह सहज ही हिन्दी को पछाड़ देने में सफल हुई। कारण यह कि, स्वयं हिन्दू प्रतिभा और साहित्य-मृजनकारिणी शक्ति ऐसी भाषा के विकास में योग देने के विरुद्ध हो गयी, जिसका आदर शिक्षित वर्ग में नहीं रह गया था। ऐसी दशा में मुन्शो सदासुख लाल और लल्लू लाल द्वाग प्रचारित गद्य-शैली का कुछ समय के लिये दब जाना स्वाभाविक था।।

राजा शिवप्रसाद का हिन्दी-रचना काल इसी समय प्रारम्भ होता है। लल्लू लाल की तरह शुद्ध गद्य लिखने के पक्ष में वे इस कारण नहीं हुए कि उनको समझ में वैसा गद्य उस समय प्रचलित करना उचित नहीं था। उस समय की परिस्थिति पर दृष्टि रख कर एक जगह वे यह लिखते हैं :—

शुद्ध हिन्दी चाहने वाले को हम यह यक़ीन दिला सकते हैं कि जब