पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/६४५

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२—"जब दोनों महाराजों में लड़ाई होने लगी, रानी केतकी सावन-भादों के रूप रोने लगी।"

३—इस सिर झुकाने के साथ हो दिन रात जपता हूं उस अपने दाता के भेजे हुये प्यारे को।"

४—'सिर झुका कर नाक रगड़ता हूं, उस अपने बनाने वाले के सामने जिसने हम सब को बनाया और बात की बात में वह कर दिखाया कि जिसका भेद किसी ने न पाया।"

इन्शा अल्ला को भाषा में जहाँ सरलता है, जनता को दैनिक बोलचाल की भाषा से शब्दावली चुनने की प्रवृत्ति है, वहां उनकी शैली पर फ़ारसी का प्रभाव स्पष्ट रूप से दृष्टि गोचर होता है। तीसरे अवतरण में आप देखेंगे कि वाक्य की वर्त्तमान कालिन सकर्मक किया जपता हूं पहले लिखी गयी है और उस क्रिया का कर्म उस अपने दाता के भेजे हुए प्यारे को बाद की। भारतीय शैली में कर्म पहले लिखा जाता है और उसकी क्रिया बाद की। चौथे अवतरण में नाक रगड़ता हूं' पहले लिख कर 'उस अपने बनाने वाले के सामने जिसने हम सब को बनाया लिखना भी प्राय उक्त शैली का ही अनुसरण है।

इशा की भाषा में जीवन है, चंचलता है—वह जीवन और चंचलता जो प्रेम-कथा को अत्यन्त सरस और आकर्षक बना देती है। कतिपय आलोचकों ने इंशा की भाषा में गूढ़ विषयों के प्रतिपादन की क्षमता का अभाव बतलाया है। यह बात सच है। उनकी भाषा अपने ही आनन्द के उन्माद‌से नृत्य करती सी चलती है। शब्द विन्यास अनुप्रास से अलंकृत हैं, जिससे वाक्यों के शरीर में एक अपूर्व सौष्ठव दृष्टि गोचर होता है। पुराने-धुराने डाँग, चघाग, खटराग, (पुट न मिले', 'कली के रूप में खिले', 'हिन्दवी छुट और किसी बोली का पुट' आदि प्रथम अवतरण के रेखाङ्कित शब्दों को देख कर आप को मेरे इस कथन की सत्यता ज्ञात हो जायगी। इन सब बातों के अतिरिक्त इंशा ने जिस बहुत बड़ी विशेषता