पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/६४३

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कर रहे हैं।", मुसल्मान लेखकों ने फ़ारसी और अरबी के शब्दों का सम्मिश्रण कर के खड़ी बोली को खूब माँजा, राजाश्रय भी उसको प्राप्त हो हो गया था, ऐसी दशा में ब्रजभाषा गद्य को उससे सफलता पूर्वक भिड़ सकने का अवसर ही नहीं रह गया। खड़ी बोली के विशेष बलशाली हो जाने का एक कारण यह भी था कि उसका प्रचार किसी प्रान्त विशेष तक परिमित नहीं था। मुसलमानों का शासन शासन नहीं तो प्रभाव अनेक शताब्दियों तक भारतवर्ष के प्रायः समस्त भागों पर पड़ा।‌ इस लिये मुसल्मानों द्वारा प्रभावित खड़ी बाली को, जिसका नाम कालान्तर में उर्दू‌ पड़ गया प्रायः समस्त प्रान्तों में वह अनुकूलता प्राप्त हुई जो ब्रजभाषा गद्य को अपने सर्वोच्च गौरव के दिनों में भी नहीं मिल सकी। धोरे धीरे अनेक हिन्दू लेखकों ने भी मुसल्मान लेखकों द्वारा प्रस्तुत भाषा में रचना आरंभ की। मुंशी सदा सुख लाल 'नियाज़' जो अठारहवीं शताब्दी के अन्तिम दशक में ईस्ट इन्डिया कम्पनों को नौकरी में थे और चुनार में काम करते‌ थे, उन हिन्दू लेखकों में से एक थे, जिन्होंने उर्दू और फ़ारसी में रचनायें कीं। मुन्शी जी भगवद्भक्त थे, जहाँ उन्होंने अधिकांश परिश्रम उर्दू और फ़ारसी ही में किया, वहाँ भगवद्भजन के उद्देश्य से श्री मद्भागवत का अनुवाद हिन्दी में भी किया। उनका यह अनुवाद 'सुख सागर' के नाम से प्रसिद्ध है। सुखसागर की भाषा का एक नमूना देखिये:-

यद्यपि ऐसे विचार से हमें लोग नास्तिक कहेंगे, हमें इस बात का डर‌ नहीं। जो बात सत्य होय उसे कहा चाहिये काई बुरा माने कि भला माने विद्या इसी हेतु पढ़ते हैं कि तात्पर्य इसका (जो) सतावृत्ति है वह प्राप्त हो‌ और उससे निज स्वरूप में लय हूजिये। इस हेतु नहीं पढ़ते हैं कि चतुराई की बातें कह के लोगों को बहकाइये और फुसराइये और सत्य छिपाइये व्यभिचार कीजिये और सुरापान कीजिये और धन द्रव्य इकठौर कीजिये और मनको जो तमोवृत्ति से भर रहा है, निर्मल न कीजिये। तोता है सो नारायण का नाम लेता है, परन्तु उसे ज्ञान तो नहीं है।"

उर्दू लिखने में मँजी हुई लेखनी में लिखा हुआ होनेपर भी फ़ारसी का