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तोरन में बालक का उत्साह रहत है तैसे गणेश जू को विपत्यादि विदारण में बड़ी उत्साह रहत है कौतुक हो विदारत हैं।
स्वभावतः हिन्दी के इन टीकाकारों ने संस्कृत के टीकाकारों का पदानुसरण किया, क्यों कि उनके सामने संस्कृत हो को टीकाओं का आदर्श उपस्थित था। हिन्दी की इन टीकाओं की भाषा जो विशेष जटिल हो गयी है उसका कारण बहुत कुछ इस संस्कृत शैली का अनुसरण है। मैं यह कह आया हूं कि ब्रजभाषा गद्य सवल आन्दोलनों और महापुरुषों के विचार प्रगट करने का साधन होने के अभाव में परिष्कार से वंचित रहा। यहां यह भी कह देना चाहता हूं कि क्रमशः समय का प्रवाह भी उसे ऐसे अवसर देने के प्रतिकूल हो गया था। इसका कारण है क्रमशः खड़ीबोली की क्रियाओं और संज्ञा-शब्दों का उर्दू के सहयोग से बहुत अधिक लोकप्रियता प्राप्त कर लेना। सरकार की कृपा से उन्नीसवीं शताब्दी के आरम्भ में उर्दू का प्रवेश कचहरियों में हो गया था, सर्वसाधारण का सम्बन्ध कचहरी से होता हो है, ऐसी अवस्था में उर्दू से उनका प्रभावित होना स्वाभाविक था। मुसल्मान लेखक अपना रंग अलग जमा रहे थे। प्रोफेसर मुहम्मद हुसेन आजाद के निम्नलिखित अवतरण को देखिये। उसमें पूर्वकालिक हिन्दी गद्यका काया पलट मूर्तिमन्त होकर विराजमान है।
फूलों के गुच्छे पड़े झूम रहे हैं, मेवेदाने ज़मीन को चूम रहे हैं। नीम के पत्तों को सब्जी और फूलों की सफ़ेदों बहार पर है। आम के मोर में फूलों की महँक आती है। भीनी भीनी बृ जी को भाती है। जब दरख्तों की टहनियां हिलती हैं, मौलसिरी के फूलों का में है बरसता है, फल फलारी को बौछाड़ हो जाती है। धीमी धीमी हवा उनकी बु बास में लसी हुई रविशों पर चलती है। टहनियाँ ऐसी हिलती हैं जैसे कोई जोबन की मतवाली अठखेलियाँ करतो चली जाती है। किसी टहनी में भौरे की आवाज़ किसी में मक्खियों को भनभनाहट, अलग हो समाँ बांध रही है। परिन्द दरख्तों पर बोल रहे हैं और कलोल