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सोलहवीं शताब्दी में धार्मिक आन्दोलनों के कारण जनता और महात्माओं का जो सम्पर्क बढ़ा था, वह सत्रहवीं शताब्दी में आकर शिथिल पड़ गया। इस शिथिलता के कारण तथा अन्य किसी विचार-प्रवाह के अभाव में गद्य के सामने फिर एक रुकावट खड़ी हो गयी। किन्तु वह ठहर न सकी कारण यह हुआ कि हिन्दी के कुछ महाकवियों की रचनाओंका बहुत प्रचार हो जाने के कारण जनताकी उनके प्रति कुछ जिज्ञासा बढ़ी, कुछ इस कारण से कुछ धार्मिक संस्कारों से प्रेरित होकर कुछ काव्य-कौशल के सम्बन्ध में अधिक परिचय प्राप्त करने की इच्छा से 'रामचरित मानस', 'कवि प्रिया' आदि माननीय ग्रंथों पर टोकाओं की माँग हुई। इन टोकाओं के रचयिताओं ने यद्यपि गद्य की भाषा का परिष्कार करने में कोई सफलता लाभ नहीं की, तथापि अन्धकारमयी रात्रि में नक्षत्रोंकी भांति उजाला फैलाने का उद्योग जारी रक्खा

सत्रहवीं शताब्दी में केशवदास कृत कवि प्रिया की टीका सुरतिमिश्र ने सन १७१० के लगभग लिखी। उनकी भाषा के नमूने देखिये:—

१—"सीसफूल सुहाग अरु बेंदा भाग ए दोऊ आये पाँवड़े सोहे साने कुसुम तिन पर पैर धरि आये हैं।"

२—'कमल नयन कमल से हैं नयन जिनके कमलद बरन कमलद कहिये मेघ को वरण है स्याम स्वरूप है कमल नाभि श्रीकृष्णको नाम ही है कमल जिनकी नाभि ते उपज्यो है कमलाप कमला लक्ष्मी ताके पति हैं तिनके चरण कमल समेत गुन को जाप क्यों मेरे मन में रहो'।

अठारहवीं शताब्दी में भिखारीदास ने काव्य-रचना के अतिरिक्त जो थोड़ा बहुत गद्य लिखा उसका नमूना नीचे दिया जाता है:—

.....'धन पाये ते मूर्ख हूं बुद्धिवन्त ह्वै जातु है और युवावस्था पायेते नारी चतुर ह्वै जाति है यह व्यंग्य है। उपदेश शब्द लक्षण सो मालूम होता है औ वाच्य हूं में प्रगट है।'

इसी शताब्दी में किशोरदास ने 'शृंगार शतक' की टीका लिखी।