पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/६३६

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में एक समानता अवश्य है और वह है खड़ी बोली के शब्दों की ओर कम या अधिक मात्रा में प्रवृत्ति। उनका नीचे की पंक्तियों के क्रियापदों को भी देखिये। चिन्हित शब्द स्पष्ट रूप से खड़ी बोली के हैं।

"सो एक दिन नन्ददास जो के मन में ऐसी आई। जो जैसे तुलसी दास जी ने रामायण भाषा करी है। सो हमहू श्री मद्भागवत भाषा करें। ये बात ब्राह्मण लोगन ने सुनी तब सब ब्राह्मग मिलकें श्री गुसाई जो के पास गये। सो ब्राह्मणों ने विनती करो। जो श्री मद्भागवत भाषा होयगी तो हमारी आजीविका जाती रहेगी।"

गोस्वामी गोकुलनाथ ने भी 'जितने,' 'होवे', 'नहीं' आदि शब्दों का समावेश करके उनके प्रति अपनी अनुकूलता प्रकट की है।

खड़ी बोली को ओर इस प्रवृत्ति के बढ़ने के कारण थे। मुसल्मान शासकों ने हिन्दू जनता के भावों से परिचय प्राप्त करने के लिये न केवल हिन्दी बोलने की ओर ध्यान दिया था बल्कि उसमें रचनायें करना भी प्रारम्भ किया था। उन्हें किसी विशेष प्रान्तीय भाषा से द्वेष न था न असाधारण अनुराग किन्तु सबसे पहले उनका सम्पर्क ऐसे प्रान्तों से हुआ जिनमें खड़ी बोली का विशेष प्रचार था। इसमें सन्देह नहीं कि अमीर खुसरो ने खड़ो बोली और ब्रजभाषा दोनों में कविता की, किन्तु ब्रजभाषा के काव्य-विषयक संस्कार के कारण हो कभी कभी वे उसको ओर झुक‌जाते थे। जहाँ कहीं पहेलियां, मुकरियों आदिपर उनकी लखनी चली है, वहाँ खड़ी बोली का अधिक मात्रा में शुद्ध और सरसरूप ही देख पड़ता है। मुसल्मानों को खड़ो बोली के प्रति इस अनुकूल प्रवृत्ति ने हिन्दी भाषी प्रान्तों की जनता में इस बालो के अनेक शब्दों को क्रमशः लोक-प्रिय बना दिया, और जनता में आहत होकर धोरे धीरे कथा वाचकों, महात्माओं और अन्त में लेखकों को रचनाओं में भी वे शब्द पहुँचे। नीचे सन् १५७२ के लगभग 'चन्द छन्द बरनन की महिमा' नामक पुस्तक लिखने वाले गंगाभाट की भाषा के दो नमूने देखिथे। उनमें आप को