पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/६२६

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

(६१२)

 

तीसरा खण्ड।
गद्य—विभाग।

पहला—प्रकरण।
गद्य—मीमांसा।

संस्कृत का एक वाक्य है—गद्यं कवीनाम् निकषं वदन्तिं। इसका अर्थ यह है कि गद्य ही, विद्वानों की सम्मति में, कवियों की कसौटी है। प्रकट रूप में यह वाक्य कुछ विचित्र जान पड़ता है परन्तु वास्तव में उसके भीतर एक गहरा मर्म है। साधारणतया अपने भावों और विचारों को कवि पद्य-बद्ध भाषा में व्यक्त करता है, पद्य में उसकी निरंकुशता के लिये यथेष्ट अवकाश है तुक छन्द आदि बंधनों में बँधे हुये होने के कारण उसे अनेक असुविधाओं का सामना करना पड़ता है और विचारों तथा भावों की अभिव्यक्ति में उसकी कठिनाइयों पर दृष्टिपात कर के पाठक उसकी अनेक त्रुटियों को क्षमा कर सकता है। परन्तु गद्य में अपनी योग्यता और प्रतिभा प्रदर्शित करने के लिये लेखक को इतना चौड़ा मैदान मिलता है कि उसको कोई अवसर अपनी असमर्थता के निराकरण का नहीं रह जाता। न यहाँ छंद की व्यवस्था उसकी वाक्यावली के पाँवों को जकड़ती है, न तुक का बखेड़ा उसकी प्रगति में बाधा डालता है। जी चाहे बड़े वाक्य लिखिये, जो चाहे छोटे न कल्पना की उड़ान में आपको कोई रुकावट रहेगी और न अलंकारों की संयोजना में किसी प्रकार की बांधा। अतएव यह स्पष्ट है कि संस्कृत का उक्त कथन सत्यता मूलक है।

मनुष्य उस आनंद को प्रायः छन्द लय, संगीत, आदि से अलंकृत वाक्यावलीही में व्यक्त करता है जो संसार में चारों ओर दिखायी पड़नेवाले सौन्दर्य के कारण उसके हृदय में उत्पन्न होता रहता है। दैनिक जीवन में आठों पहर प्रत्येक विचार को पद्य-वद्ध भाषा में व्यक्त करना उसके लिये संभव नहीं। साधारण बात चीत के लिये, समाज में काम-काज के लिये