पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/६०१

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रीतिसे समझ कर उसकी ओर अग्रसर होते हैं वे वन्दनीय हैं और उनकी कार्य्या-वली अभिनन्दनीय है। उनका विरोध नहीं किया जा सकता। आधिभौतिक और आध्यात्मिक जितने कार्य्य-कलाप हैं उनका यथातथ्य ज्ञान एक प्रकार से असम्भव है। परन्तु उसकी कुछ न कुछ छाया या प्रतिबिम्ब प्रत्येक हृदय दर्पण में यथा समय पड़ता रहता है। कहीं यह छाया धूँधली होती है, कहीं उससे स्पष्ट , कहीं अधिकतर स्पष्ट। इसी का वर्णन अनुभूति और मेघा-शक्ति-द्वारा होता आया है अब भी हो रहा है, और आगे भी होगा। इन अनुभूतियों का प्रकाश वचन-रचना द्वारा करना प्रशंसनीय है, निन्द-नीय नहीं। चाहे उसको रहस्यवाद कहा जावे अथवा छाया वाद। इसका प्राचीन नाम रहस्यवाद ही है, जिसे अँगरेजी में (mysticism) मिस्टि-सिज्म कहते हैं। उसी का साधारण सँस्करण छायावाद है। अतएव उस पर अधिक तर्क वितर्क उचित नहीं, उसके मार्ग को प्रशस्त और सुन्दर बनाना ही अच्छा है।

अब तक मैंने जो निवेदन किया है उनका यह अभिप्राय नहीं है कि छायावाद के नाम पर जो अनर्गल और बेसिर पैर की रचनायें हो रही हैं, मैं उनको प्रश्रय दे रहा हूं। मेरे कथन का यह प्रयोजन है कि गुण का आदर अवश्य होना चाहिये। अनर्गल प्रलाप कभी अभिनन्दनीय नहीं रहा उसका जीवन क्षणिक होता है, और थोड़े ही समय में अपने आप वह नष्ट हो जाता है। दूसरी बात यह कि सच्चे समालोचक और सत्समालोचना का कार्य्य ही क्या है? यही न कि साहित्य से उसकी बुराइयां दूर की जावे और जो भ्रान्त हैं उनको पथ पर लगाया जावे, जो चूक है उनको सुधारा जावे और साहित्यमें जो कूड़ा-करकट हो उसको निकाल बाहर किया जावे। दोष-गुण सब में हैं, गुण का ग्रहण और दोष का शंशोधन एवं परिमार्जन ही वांछनीय है। छायावाद की अनेक रचनायें मुझ को अत्यन्त प्रिय हैं और मैं उन्हें बड़े आदर की दृष्टि से देखता हूं। जिनमें सरस ध्वनि और व्यंजना है उनका आदर कौन सहृदय न करेगा? क्या काँटों के भय से फूल का त्याग किया जावेगा। यह भी मैं मुक्त कंठ से कहता हूं कि छाया-