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रहस्य वाद, शब्दमें एक प्रकारकी गंभीरता और गहनता है। उसमें एक ऐसे गंभीर भाव की ध्वनि है जो अनिर्वचनीय है और जिस पर एक ऐसा आवरण है जिसका हटाना सुगम नहीं। किन्तु 'छायावाद' शब्द में यह बात नहीं पायी जाती। उसमें कोई अज्ञेय दृष्टिगत न हो, परन्तु कम से कम उसका प्रतिबिम्ब मिलता है और कविकर्म्म के लिये इतना अवलम्बन अल्प नहीं। इसलिये रहस्यवाद शब्द से छायावाद शब्द में स्पष्टता और बोधग-म्यता है। छायावादका अनेक अर्थ अपने बिचारानुसार लोगों ने किया है। परन्तु मेरा विचार यह है कि जिस तत्व का स्पष्टीकरण असम्भव है, उसकी व्याप्त छाया का ग्रहण कर उसके विषय में कुछ सोचना, कहना, अथवा संकेत करना असंगत नहीं। परमात्मा अचिन्तनीय हो, अव्यक्त हो, मन-वचन-अगोचर हो, परन्तु उसकी सत्ता कुछ न कुछ अवश्य है। उसकी यही सत्ता संसार के वस्तुमात्र में प्रतिविम्बित और बिरजमान है। क्या उसके आधार से उसके विषय में कुछ सोचना बिचारना युक्तिसंगत नहीं। यदि युक्ति-संगत है तो इस प्रकार की रचनाओं को यदि छायावाद नाम दिया जावे तो क्या वह विडम्बना है? यह सत्य है कि वह अनिर्वचनीय तत्व अकल्पनीय एवं मन बुद्धि चित्त में परे है, परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि हम उसके विषय में कुछ सोचविचार ही नहीं सकते। उसके अपरिमित और अनन्त गुणोंका हम न कह सके यह दूसरी बात है, किन्तु उसके विषय में हम कुछ कह ही नहीं सकते ऐसा नहीं कहा जा सकता। संसार-समुद्र अब तक बिना छाना हुआ पड़ा है। उनके अनन्त रत्न अब तक अज्ञातावस्था में हैं। परन्तु फिर भी मनोपियों ने उसकी अनेक विभूतियों का ज्ञान प्राप्त किया है। जिसने एक और मनुष्यों को सांसारिक और आध्यात्मिक कई शक्तियां प्राप्त हुई और दूसरी ओर संसार के तत्वों का विशेष ज्ञान प्राप्त करने की जिज्ञासा और जाग्रत हो गयी। उस परम तत्व के विषय में भी यही बात कही जा सकती है। मेरे कथन का अभिप्राय यह है कि छायावाद शब्द कीव्याख्या यदि कथित रूप में ग्रहण की जाय तो उसके नाम की सार्थकता में व्याघात उपस्थित न होगा। मेरी इन बातों को सुन कर कहा जा सकता है कि यह तो छायावाद को