कोयल तू मन मोहि के गयो कौन से देस।
तव अभाव में काग मुख लखनो परो भदेस।
लखनो परो भदेस बेस तोही सो कारो।
पै बोलत है बोल महा कर्कस कटु न्यारो।
कहें मीर हे दैव काग को दूर करो दल।
लाओ फेर बसन्त मनोहर बोलैं कोयल।
आ गया प्यारा दसहरा छा गया उत्साह बल।
मातृ पूजा पितृ पूजा शक्ति पूजा है बिमल।
हिन्दमें यह हिन्दुओं का विजय उत्सव है ललाम।
शरद की इस सुऋतु में है खङ्ग पूजा धाम धाम।
इनके अतिरिक्त पं० जगदम्बा प्रसाद हितेषी, पं० अनूप शर्म्मा, बाबू द्वारिका प्रसाद रसिकेन्द्र इत्यादि अनेक कवि खड़ी बोली की सुन्दर रचनायें करने में इस समय प्रसिद्ध हैं और उन लोगों ने कीर्ति भी पायी है।
वर्तमान काल में व्रजभाषा की क्या दशा है, इस पर प्रकाश डालना भी आवश्यक जान पड़ता है। व्रजभाषा के जो कवि आज तक उसकी सेवा में निरत हैं उनका स्मरण न करना अकृतज्ञता होगी। व्रजभाषा हो चाहे खड़ी बोली, दोनों ही हिन्दी भाषा हैं। अतएव व्रजभाषा देवी की अर्चना में निरत सज्जन हिन्दी भाषा-सेवी ही हैं अन्य नहीं। उनकी अमूल्य रचनायें हिन्दी भाषा का ही श्रृंगार हैं और उनके अर्पण किये हुए रत्नों से हिन्दी भाषा का भाण्डार ही भर रहा है, इसको कौन अस्वीकार कर सकता है। व्रजभाषा के कुछ ऐसे अनन्य भक्त अब भी विद्यमान हैं जो उसकी कोमल कान्त पदावली ही के अनुरक्त हैं और इतने अनुरक्त हैं कि दूसरी भाषा की ओर आंख उठा कर भी देखना नहीं चाहते। इनमें उल्लेख-योग्य बाबू जगन्नाथ दास रत्नाकर और पं० हरि प्रसाद द्विवेदी (उपनाम वियोगी हरि) हैं। इस शताब्दी में ही ऐसे ही व्रजभाषा के एक