पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/५६१

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लम्बी कविता हिन्दी भाषा सम्बन्धिनी लिखी थी यह कविता 'प्रेम-पुष्पो-फ्हार' के नाम से अलग पुस्तकाकार छपी है। मैंने उसे बोलचाल की भाषा में लिखा है। उत्सव में बाबू अयोध्या प्रसाद खत्री भी आये थे। उन्होंने मेरे पढ़ने से पहले ही उस कविता को मुझसे लेकर पढ़ लिया। पढ़ कर बहुत आनन्दित हुये, बोले खड़ी बोली की कविता ऐसी ही भाषा में होनी चाहिये। परन्तु मेरी इस कविता को स्व° पं° बदरीनारायण चौधरी (प्रेमघन) ने उनकी दृष्टि से नहीं देखा। जब मैंने उत्सव के समय सभा में यह कविता पही तो कविता समाप्त होने पर वे मेरे पास अपने स्थान से उठ कर आये और कहा कि यह उर्दू कविता है। आप इसे हिन्दी क्यों कहते हैं। मुझसे उन्होंने सभाभवन से बाहर आकर भी उसके विषय में बड़ा तर्क-वितर्क किया। बाबू काशी प्रमाद जायसवाल से भी उन्होंने उसके विषय में अनेक तर्क किये।

उस ग्रन्थ के कुछ पद्य नीचे लिखे जाते हैं :—

चारडग हमने भरे तो क्या किया।
है पड़ा मैदान कोसों का अभी।
काम जो है आज के दिन तक हुए।
हैं न होने के बराबर वे सभी।
हो दशा जिम जाति की ऐसी बुरी।
बन गयी हो जो यहाँ तक बेख़बर।
फिर भले ही जाय गरदन पर छुरी।
पर जो उफ़ करने में करती है कसर।
आप हा जिसकी है इतनी बेबसी।
है तरसती हाथ हिलाने के लिये।
आस हो सकती है उससे कौन सी।
हो सके है क्या भला उसके किये।
कम नहीं जिन से अँधेरी टूटती।
भूल सकता है समय जिनको नहीं।