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से नियम ऐसे हैं, जो कि इण्डोएरियन भाषाओं से उनको अलग करते हैं। जैसे वर्तमान पिशाची में 'र' का उच्चारण । यद्यपि अन्य विषयों में वे साधारणतः इण्डोएरियन भाषाओं के समान हैं, तथापि कभी कभी उनमें ईरानियन विशेषतायें भी झलक जाती हैं। इनमें से कुछ ईरानी विशेषतायें ऐसी हैं, कि जिनको देखकर 'कोनो' ने यह विचार प्रगट किया कि पैशाची में वशगली भाषा ईरानी भाषा की वर्तमानकालिक प्रतिनिधि है। इस बात का विचार करते हुए कि कुल पिशाची भाषाओं में कुछ ईरानियन विशेष- ताओं का अभाव है, मेरी राय यह है कि पिशाच भाषायें न तो शुद्ध भारतीय हैं और न शुद्ध ईरानियन । शायद उन्हों ने इण्डोएरियन भाषाओं की उत्पत्ति के बाद आर्यभाषा को जो उसके मा बाप हैं छोड़ दिया। परन्तु ज्ञात होता है कि अवेस्ता के ईरानियन विशेषताओं के विकास होने के पहले ही ऐसा हुआ। आर. जी. भाण्डारकर की राय यद्यपि अन्य शब्दों में प्रकट की गई है, परन्तु उससे भी यही भाव प्रकट होता है। वे कहते हैं “यह पैशाची प्राकृत शायद आर्य-जाति की उस शाखा की भाषा है जो कि अपनी जातिवालों के साथ बहुत दिन तक रही, परन्तु भारत में पीछे आई, और किनारे पर बस गई। या यह भी हो सकता है कि वह अपनी जाति. वालों के साथ ही भारत में आई, परन्तु किनारे के पहाड़ी प्रदेशों में स्वतंत्रतापूर्वक बस जाने के कारण अपनी भाषा सम्बन्धी उच्चारण विशेष- ताओं का ऐसा विकास किया कि जिससे मैदान की सभ्य भाषा से घनिष्टता प्राप्त कर सकी। इसी कारण उनकी भाषाओं के उच्चाग्ग में वे परिवर्तन नहीं हुये, जो कि संस्कृत से उत्पन्न होनेवाली प्राकृतों में हो सके" अन्त में मैं यह सोचता हूं कि वर्तमान पिशाच भापा कुछ विषयों में तलवह भापासे मिलती जुलती है, जिससे यह अनुमान होता है कि इसके बोलनेवाले अपने वर्तमान स्थान पर भारत के मैदान से नहीं वरन सीधे पामीर से आये । और दूसरे लोग जो कि शुद्ध इण्डोएग्यिन के बोलनेवाले थे भारत के मैदान में पश्चिम से पहुंचे। यदि वास्तविक घटना ऐसी ही है, तो यह स्वीकार करना पड़ेगा कि आर्य्यो के मुख्य दलाें से इनका दल अलग था ।*
Bulletin of the School of Oriental Studies, London Institute (S36)Hi-74-75.