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प्रनमत तीस कोटि जन अजहूं जाहि जोरि जुग पानी।
जिन मैं झलक एकता की लखि जग मति सहमिसकानी।
ईस कृपा लहि बहुरि प्रेम घन बनहु सोई छवि खानी।
सोइ प्रताप गुन जन गरबित ह्वै भरी पुरी धन धानी।

उनकी एक बड़ी बोली की रचना भी देखिये जो अंतिम दिनों में की गई है।

मन की मौज।

१— मन की मौज मौज सागर सी सो कैसे ठहराऊँ।
जिसका वारापार नहीं उस दरिया को दिखलाऊँ।
तुमसे नाजुक दिल को भारी भँवरों में भरमाऊँ।
कहो प्रेमधन मन की बातें कैने किसे सुनाऊँ।
२— तिरछी त्योरी देखि तुम्हारी क्यों कर सीस नवाऊँ।
हौ तम बड़े खबीस जान कर अन जाना बन जाऊँ।
हर्फे शिकायत ज़याँ प आये कहीं न यह डरलाऊँ।
कहो प्रेमधन मन की बातें कैसे किसे सुनाऊँ।
३— लूट रहे हो भली तरह मैं जानू वले छुपाऊँ।
करते हो अपने मन की मैं लाख चहे चिल्लाऊँ।
डाह रहे हो खूब परा परबस मैं गो घबराऊँ।
कहो प्रेमघन मन की बातें कैसे किसे सुनाऊँ।

प्रेमघन जी ने गद्य में बहुत बड़ा कार्य किया है, उनके गद्यों में विलक्षणतायें और माधुर्य्य भी अधिक है। इसका वर्णन आगे गद्य-विभाग में होगा। इसलिये उसकी यहां कुछ चर्चा नहीं की जाती।

पं° प्रतापनारायण मिश्र भारतेन्दु काल के एक जगमगाते हुए नक्षत्र