पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/५०१

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
( ४८७ )

अपने अटके सुन एरी भटू
निज सौत के माय के जैयत है ।

इन तीनों ठाकुरों की रचना में यह बड़ी विशेषता है कि सीधे सादे शब्दों में रस की धारा बहा देते हैं। न अनुप्रास की परवा. न यमक की खोज, न वर्ण मैत्री की चिन्ता। वे अपनी बातें अपनी ही बोलचाल में कह जाते हैं और हृदय को अपनी ओर खींच लेते हैं। कवि कम्मृ है भी यही। जो बातें आगे-पीछे होती रहती हैं. उनको ले कर उनका चित्र बोलचाल में खींच देना सब का काम नही. सरस हृदय कवि ही ऐसा कर सकते हैं।

रामसहाय दास. भवानीदास के पुत्र थे। वे जाति के कायस्थ थे और काशिगज महागज उदित नारायण सिंह के आश्रय में रहते थे। उन्होंने चार ग्रंथों को ग्चना को है--- वृत्ततरंगिनी', 'ककहरा', 'रामसतसई' और 'वाणोभूपग' । 'वाणी भूपग' अलंकार का. वृत्ततरंगिनी' पिंगल का, और ककहरा' नीति सम्बन्धी ग्रंथ है। राम सतसई बिहारी सतसई के अनुकरण से लिखी गयी है। बिहारों ने अपने सतसई का नाम अपने नाम के आधार पर कावा है ता गमसहायदास ने भी अपनी सतसई का नाम अपने नाम के सम्बन्ध से ही रक्खा। इतना ही अनुकरण नहीं, उन्होंने बिहारी सतसई का अनुकरण सभी बातों में किया है। उनके दोहे बिहारी के दोहों के टक्कर के हैं। परंतु सहृदयता और भावुकता में बिहारी की समता वे नहीं कर सके। चंदन सतमई और विक्रम सनसई मो बिहारी सतसई के हो आधार से लिखा गया है। परंतु उन सतसइयों को भी बिहारी लाल की सतसई की सो सफलता भाव चित्रण में नहीं प्राप्त हुई। शब्द विन्यास में बोल चाल को भाषा लिखने में ब्रजभाषा के टकसाली शब्दों में सरसता कूट कूट भरदेने में बिहारी लाल अपने जैसे आप हैं। राम सतसई के कुछ पद्य नीचे लिखे जाते हैं: ..

१-गुलफनि लौ ज्यों त्यों गयो करि करि साहस जोर ।
फिरि न फिर्यो मुरवान चपि चित अति खात मरोर।