पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/५०

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(३६)

पाली को स्थानच्युत होना पड़ेगा। आज दिन भी मागधी और उसके थोड़े परिवर्तित रूप अर्धमागधी को प्राच्य प्राकृत ही माना जाता है, स्थान भी उनका अबतक वही है. जिनका उल्लेख ऊपर हुआ है। अशोककाल के शिलालेख भी अधिकतर इन्हीं भाषाओं में पाये जाते हैं, इसलिये एक प्रकार से यह वात निर्विवाद रूप से स्वीकृत होती है कि बुद्धदेव ने जिस भाषा में उपदेश दिये, वह मागधी ही थी। रहा पाली का स्थान च्युत होना मेरा विचार यह है कि पाली' शब्द के नामकरण पर विचार करने से इस जटिल विषय पर बहुत कुछ प्रकाश पड़ जाता है। पालि प्रकाशकार प्रवेशिका के पृष्ट ३ में लिखते हैं-

"उल्लिखित उदाहरण समूहद्वारा यह स्पष्टतया ज्ञात होता है कि पालि शब्द से पहले बौद्धधर्मशास्त्र की पंक्ति अथवा मूलशास्त्र त्रिपिटक, समझा जाता। इसके बाद कालक्रम से धीरे धीरे त्रिपिटक के साथ सम्वद्ध अर्थकथा, और साक्षात अथवा परम्परा सम्बन्ध से उससे सम्बद्ध कोई ग्रन्थही पालि शब्द से अभिहित होने का सुयोग पा सका। जैसे मूल संहिता और उससे सम्बन्धित ब्राह्मण ग्रन्थ दोनों ही वेद माने जाते हैं, और जैसे प्राचीन मनु इत्यादिक धर्मशास्त्र और उससे सम्बद्ध आधुनिक ग्रन्थकार का ग्रन्थ, दोनों ही स्मृति कहकर गृहीत होते हैं, उसी प्रकार वौद्धसाहित्य में पहले त्रिपिटक, उसके उपरांत अर्थ-कथा और तदनन्तर उससे सम्बद्ध अपर ग्रन्थसमूह 'पालि' नाम से प्रसिद्ध हुये किन्तु जिन ग्रन्थों के साथ ‘पालि' (त्रिपिटक आदिक) का कोई सम्बन्ध नहीं था, उस समय वे पालि नाम से अभिहित नहीं हुये। केवल ग्रन्थ कहलाकर ही वे परिचित होते थे । मूलशास्त्र को पालि कहते थे, इसीलिये उसकी भाषा का नाम भी पालिभाषा अथवा कालक्रम से संक्षेप में केवल “पालि" हुआ। इन सब वातों पर विचार करने से यह वात स्पष्ट हो जाती है कि पालि भाषा का आदिम अर्थ 'पालि' की अर्थात वौद्धधर्म के मूल शास्त्र की भाषा है।"

ज्ञात होता है कि इन्हीं बातों पर दृष्टि रखकर किसी पाश्चात्य विद्वान ने पालि को कृत्रिम अथवा साहित्यिक भाषा लिखा है, परन्तु पालि प्रकाशकार