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ठाकुर कुंजन कुंजन गुंजत
भौंरन भीर चुपैबो चहै ना ।
सीतल मंद सुगंधित बीर
समीर लगे तन धीर रहै ना ।
व्याकुल कीन्हों बसंत बनाय कै
जाय कै कंत से कोऊ कहैना

दूसरे ठाकुर भी असनी के रहने वाले थे उन्होंने विहारो की सतसई पर टीका भी लिखी है। उनकी रचनाये भी संदर और सरम होती थीं उन्हों ने नीति सम्बन्धी जो कवित्त बनाये हैं वे बड़े हो उपयोगी और उप देशमय हैं। जैसे ही उनके शृंगार रस के कवित्त सुंदर हैं वैसे ही नीति सम्बन्धी भी। उनके कुछ सवैये भी बड़े हो हृदयग्राही हैं। नीति-सम्बन्धी कवित्त यदि विवेकशील मस्तिष्क की उपज है तो सग्य सवैये उनकी सहदयता के नमूने हैं। उनमें से कुछ नीचे लिखे जाते हैं:---

१ बैर प्रीति करिबे की मन में न राखै संक
राजा राव देखि कै न छाती धक धा करी।
आपने अमेंड के निवाहिबे की चाह जिन्हें
एक सो दिखात तिन्हें बाघ और बाकरी।
ठाकुर कहत मैं विचार के विचारि देख्यो
यहै मरदानन की टेक औ अटाकरी ।
गही तीन गही जौन छाही तौन छाड़ी
जौन करी तौन करीबात ना करी सो नाकरी।
२-सामिल में पीर में सरीर में न भेद राखे
हिम्मत कपाट को उघारै तो उघरि जाय ।