पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/४८

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इसी भाषा में अपने सिद्धान्तों का प्रचार किया। अशोक के शिलालेख अधिकतर इसी मागधी अथवा उसके अन्यतम भेद अर्द्धमागधी में लिखे पाये जाते हैं। इसलिये यदि पहली प्राकृत हो सकती है, तो वौद्धमागधी । प्राकृत मागधी को ऐसी अवस्था में दूसरी प्राकृत मान सकते हैं। देशपरक नाम निस्सन्देह वौद्धमागधी को भी निर्विवाद रूप से पाली मानने का वाधक है, और इसी विचार से ज्ञात होता है कि एक वौद्ध विद्वान् ने मागधी की यह व्युत्पत्ति की है, 'सोच भगवा मागधो मगधे भवत्ता साच भासामागधी। अर्थ इसका यह है कि मगध में उत्पन्न होने कारण भगवान बुद्ध को मागध कह सकते हैं, इसलिये उनकी भाषा को मागधी कहा जा सकता है। किन्तु इस विचार का खण्डन यह कह कर किया गया है कि भाषा का नाम देशपरक होता है. व्यक्ति विशेष परक नहीं । क्योंकि ऐसा कहना अस्वाभाविक और उस प्रत्यक्ष सिद्धान्त का वाधक है, जिसके आधार से अन्य देशभाषाओं का नामकरण हुआ १ । यह बहुत बड़ा विवाद है, अबतक छानबीन हो रही है, इसलिये मैं स्वयं इस विषय में कुछ निश्चितरूप से कहने में असमर्थ हूं। बंगाल के प्रसिद्ध विद्वान डाकर सुनीति कुमार चटर्जी की सम्मति आपलोगोंके अवलोकन के लिये यहां उद्धृत करता हूं-वे लिखते हैं-

"महाराज अशोक के समय में एक नई साहित्यिक भाषा भारत से सिंहल में फैली, यह पालि भाषा है। पहले पण्डित लोग सोचते थे कि पालि की जड़ पूर्व में- मगध में थी, क्योंकि इसका एक और नाम मागधी है । अब पालि के सम्बन्ध में पण्डितों की गय बदल रही है। अब विचार है कि पालि पूर्व की नहीं, बल्कि पछांह की-अर्थान मध्य देश की ही बोली थी। वह शौरसेनी प्राकृत का प्राचीन रूप थी । बुद्धदेव के उपदेश पूर्व की बोली प्राच्य प्राकृत में हुये, जो कोशल काशी और मगध में प्रचलित थी। फिर वे इस प्राच्य प्राकृत से और प्राकृतों में अनुदित हुये। मथुरा और उज्जैन की भाषा में जो अनुवाद हुआ, उसका नाम दिया गया 'पालि' । सिंहल में जब इस अनुवाद का प्रचार हुआ, तब वहां के लोग भूल

१ देखिये पालि प्रकाश पृष्ट १३