दर्पण में से आभा फूटती है, वैसे ही उनकी वाक्यावली में से भाव विकसित होता रहता है। अलंकार इनकी कृति में आते हैं, किंतु उसे अलंकृत करने के लिये, दुरूह बनानेके लिये नहीं, उनकी भाषा साहित्यिक व्रजभाषा है। उसमें कहीं कहीं अन्य भाषा के शब्द भी आजाते हैं, परन्तु वे आभूषण में नग का काम देते हैं। उन्होंने कुछ भाव संस्कृत और भाषा के अन्य कवियों के भी लिये हैं, किंतु उनको बिलकुल अपना बना लिया है साथ ही उनमें एक ऐसी मौलिकता उत्पन्न कर दी है, जिससे यह ज्ञात होता है कि वे उन्हीं की सम्पत्ति हैं।
पदमाकर जी बड़े भाग्यशाली कवि थे। वे उस वंश के रत्न थे जो सर्वदा बड़े बड़े राजाओं, महाराजाओं द्वारा आद्दत होता आया था। जितने राजदरवारों में उन का प्रवेश हुआ और जितने राजाओं-महाराजाओं से उन्हें सम्मान मिला, हिन्दी संसार के किसी अन्य कवि को वह संख्या प्राप्त नहीं हुई। वे तैलंग ब्राह्मण थे। इसलिये उनकी पूजा कहीं गुरुत्व लाभ करके हुई, कहीं कवि-कर्म्म द्वारा। उनके पूर्व पुरुष भी विद्वान और कवि थे और उनके पुत्र एवं पौत्र भी। उनके पौत्र गदाधर हिन्दी संसार के परिचित प्रसिद्ध कवि है। वे कवि-कर्म्म में तो निपुण थे ही, सम्मान प्राप्त करने में भी बड़े कुलाल थे। उन्होंने अनेक ग्रंथों की रचना की है। कहा जाता है कि 'रामरसायन' नामक एक राम-चरित्र सम्बन्धी प्रबंध काव्य भी उन्होंने लिखा था। परंतु उसकी कविता ऐसी नहीं है जैसी उनके जैसे महाकवि की होनी चाहिये। इसलिये कुछ लोगों की यह सम्मति है कि वह ग्रंथ उनका रचा नहीं है। उनका सबसे प्रसिद्ध ग्रंथ जगद्विनोद है, जो हिन्दी भाषा-कवि-कुल का कण्ठहार है। प्रवोध पचासा और गंगालहरी भी उनके सुंदर ग्रंथ हैं। इन ग्रंथों में निर्वेद जैसा मूर्तिमन्त हो कर विराजमान है वैसी ही उनमें मर्म-स्पर्शिता भी है। पदमाकर के ग्रंथों की संख्या एक दर्जन से अधिक है, और उन सबों में उनकी प्रतिभा सुविकसित मिलती है। उनमें से कुछ कवितायें नीचे लिखी जाती है:—
१— व्याधहूँ ते बिहद असाधु हौं अजामिल लौं
ग्राह ते गुनाही कहो तिन मैं गिनाओगे।