पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/४७१

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सहजोबाई और दयाबाई दोनों चरनदास की शिष्या थीं और दोनों ही ढूसर वंश को थीं। दोनों ही आजन्म उनकी सेवा में रहीं और परमार्थ में ही अपना जीवन व्यतीत किया। इन दोनों की गुरु-भक्ति प्रसिद्ध है। इनकी रचनाओं में भी इसकी झलक पायी जाती है। भाषा इनदोनों की व्रजभाषा है। परंतु निगुणवादियों का ढंग भो उसमें पाया जाता है। ये दोनों भी चित्त की उमंग से ही कविता करती थीं। उनके बोध पर सत्संग का प्रभाव था, पढ़ी-लिखी वे थीं या नहीं, इस विषय में कहीं कुछ लिखा नहीं मिलता। सहजोबाई ने कोई ग्रंथ नहीं बनाया। उनकी स्फुट कवितायें पायी जाती हैं। उनमें से कुछ यहां लिखी जाती हैं:—

१— निश्चय यह मन डूबता लोभ माह की धार।
चरनदास सतगुरु मिले सहजो लई उबार।
२— सहजो गुरु दीपक दियो नैना भये अनंद।
आदि अंत मध एक ही सूझि परै भगवंत।
३— जब चेतै जहँ ही भला मोह नींद सूं जाग।
साधू की संगति मिलै सहजो ऊंचे भाग।
४— अभिमानी नाहर बड़ो भरमत फिरत उजार।
सहजो नन्हीं बाकरी प्यार कर संमार।
५— सीस कान मुख नामिका ऊंचे ऊंचे नाँच।
सहजो नीचे कारने सब कोई पूजे पाँव।

दयाबाई का एक ग्रंथ है, निमका नाम है 'दयावोध'। उसके आधार से उनके कुछ पद्य नीचे दिये जाते हैं:—

१— बौरी है चितवत फिस्वं हरि आवै केहि ओर।
छिन उट्ठूं, छिन गिरि परूं रामदुखी मन मोर।
२— प्रेम पुंज प्रगटै जहां तहां प्रगट हरि होय।
दयादया करिदेत हैं श्री हरिदरसन सोय।