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प्रिय नहीं हुआ जितना 'ब्रज विलास' ब्रज विलास की रचना उन्हों ने सूरदास के पदों के आधार से की है। वरन यह कहा जा सकता है कि उनके पदों को, चौपाइयों, दोहाओं सोरठाओं और विविध छन्दों में परिणत कर दिया है। ये स्वयं इसको स्वीकार करते हैं। यथा:—

भाषा को भाषा करौं छमिये सब अपराध।
जेहि तेहि विधि हरि गाइये कहत सकल श्रुति साध।
या मैं कछुक बुद्धि नहिं मेरी।
उक्ति युक्ति सब सूरहिं केरी।
मोते यह अति होत ढिठाई।
करत विष्णु पद की चौपाई।

ब्रजवासी दास का यह महत्व है कि वे व्रजविलास को रचना से अपनी प्रतिभा का कोई सम्बन्ध स्वीकार नहीं करते। परंतु उसमें उनका निजस्व भी देखा जाता है। उन्होंने स्थान २ पर कथाओंको संगठित रूपमें इस सरलता के साथ कहा है कि उनमें विशेष मधुरता आ गयी है। यह उनकी भावमयी और सरस प्रकृति काही परिणाम है। उन्होंने गोस्वामी जी का अनुकरण किया है, परन्तु उनकी भाषा साहित्यिक व्रजभाषा है, जिससे सरसता टपकी पड़ती है। उनके ग्रन्थ का शब्द-विन्यास इतना कोमल है और उसमें कुछ ऐसा आकर्षण मिलता है जो स्वभावतया हृदयों को अपनी ओर खींच लेता है। उनके इस ग्रंथ का प्रचार भी अधिक है, बिशेष कर व्रजप्रांत और युक्त प्रान्त के पश्चिमीय भाग में। 'प्रवोध चन्द्रोदय' का अनुवाद मेरे देखने में नहीं आया। सुना है उसकी भाषा भी ऐसी ही ललित है। मैं उनके कुछ पद्य व्रजविलास से उठाता हूं। उनके पढ़ने से आपको यह अनुभव होगा कि उनकी रचनामें कितना लालित्य है। चन्द्रमा को देख कर कृष्णचन्द्र मचल गये हैं और उसको लेना चाहते हैं। माताने एक थाली में जल भर कर चन्द्रमा को उनके पास पकड़ मँगाया। उसी समय का यह वर्णन है। देखिये उसकी मनोहरता और स्वाभाविकता :—