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४— पहले अपनाय सुजान सनेह
सों क्यों फिर नेह को तोरिये जू।
निरधार अधार दै धार मँझार
दई गहि बाँह न बोरिये जू।
घन आनँद आपने चालक को
गुन बाँधि कै मोह नछोरिये जू।
रस प्याय के ज्याय बँधाय के
आस बिसास में क्यों विष घोरिये जू।

उर्दू का एक शेर है, 'काग़ज़ पै रख दिया है कलेजा निकाल के'। सच्ची बात यह है कि घन आनंद जो काग़ज़ पर कलेजा निकाल कर रख देते हैं! एक नायिका कहती है कि काढ़ि करेजो दिखेबो परो'। मैं सोचता हूं, यदि उस नायिका के पास घन आनंद की सी सरस रचना की शक्ति होती तो उसको यह न कहना पड़ता। इनका बाच्यार्थ जितना प्रांजल है उतनी ही उसमें कसक है। दोनों के समागम से इनकी रचना में मणि-कांचन-योग हो गया है। वियोग-श्रृंगार की रचना में इन्होंने जो वेदना उत्पन्न की है। ऐसा कौन है कि जिसके हृदय पर वह प्रभाव नहीं डालती। वास्तव में घन आनंद जी ने इस प्रकार की रचना करने में बड़ी सफलता लाभ की है। इनकी कृति में आन्तरिक पीड़ा प्रवाहित मिलती है, परंतु हृदयों में वह सृजन करती है विचित्र मधुरता।

नागरीदास जो कृष्णगढ़ के महाराज थे। इनका मुख्य नाम सामंत सिंह था। वीर इतने बड़े थे कि बूंदी के हाड़ा राजा को समर में पराजित कर स्वर्ग लोक पहुंचाया। साहसी इतने बड़े कि अपने छिन गये राज्य को भो अपने पौरुष से पुनः प्राप्त कर लिया। किंतु त्याग उनमें बड़ा था और भगवान कृष्णचन्द्र की भक्ति उत्तरोत्तर वृद्धि पा रही थी। इसलिये उन्होंने राज्य को तृण समान त्यागा और वृंदावन धाम में पधार कर भगवल्लीला में तल्लीन हो गये। जब तक जिये कृष्ण भक्ति-सुधा पान कर जिये, राज्य