पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/४३७

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प्रयोग होता है। ब्रजभाषा में 'य' लिखा जाता है। मैं तो देखता हूं कि सूरदास के समय से अब तक के ब्रजभाषा के कवि दोनों प्रयोग करते आये हैं। और इसी लिये मैं घन आनन्द की भाषा को भी साहित्यिक ब्रज-भाषा ही मानता हूं। घन आनन्द जी की भाषा में इतनी विशेषता अवश्य है कि उसमें व्रजभाषा-सम्वन्धी प्रयोग ही अधिक पाये जाते हैं। यह दिख लाने के लिये कि वे 'इ' के स्थान पर 'य' का प्रयोग भी करते हैं, मैं नीचे एक पद्य और लिखता हूँ। उसके चिन्हित शब्दों को देखिये:–

तब तो दुरि दूरहि ते मुसुकाय
बचाय के और की दीठि हँसे।
दरसाय मनोज की मुरति ऐसी
रचाय के नैनन मैं सरसे।
अबतौ उर माहि बसाय के मारत
ए जू बिसासी कहाँ धौं बसे।
कछु नेह निवाह न जानत हे तो
सनेह की धार में काहें धँसे।

घन आनन्द जी के पद्यों की यह विशेषता है कि उससे रस निचुड़ा पड़ता है। जो वे कहते हैं इस ढंग से कहते हैं कि उनकी पंक्तियों में उनके आंतरिक अनुराग की धारा बहने लगती है। उनके पद्य का एक एक शब्द ऐसा ज्ञात होता है कि साँचे में ढला हुआ है और उसमें उनके भाव दर्पण में विम्ब के समान प्रतिविम्बित हो रहे हैं। इनके समस्त ग्रन्थों की रचना वैदर्भी वृत्ति में है। इसीलिये उनमें सरसता और मनोहरता भी अधिक पायी जाती है। प्रजभाषा के मुहावरों और बोलचाल की मधुरताओं को उन्होंने जिस सफलता से अंकित किया है। वैसी सफलता कुछ महाकवियों को ही प्राप्त हुई है। उन्होंने अपनी 'बिरह लीला' अरबी बह में लिखी है, जिससे यह पाया जाता है कि उस समय अग्बी बह भी हिन्दी रचना में स्थान पाने लगे थे। इनके कुछ सरस और हृदयग्राही पथ और देखिये:—