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घन आनंद वास्तव में आनन्द-घन थे। वे जाति के कायस्थ और निम्बार्क सम्प्रदाय के वैष्णव थे। कहा जाता है कि वे दिल्ली के बादशाह मुहम्मद शाह के मुंशी थे। ये सरस हृदय कवि तो थे हो, गान विद्या में भी निपुण थे। इनके रचे छः ग्रन्थ बतलाये जाते हैं, जिनमें 'सुजान-सागर', 'घनानंद कवित्त' और 'रसकेलि-बल्ली' नामक ग्रंथ अधिक प्रसिद्ध हैं जनश्रुति है कि ये 'सुजान' नामक एक वेश्या पर अनुरक्त थे। इनकी रचनाओं में उसका नाम बहुत आता है। उस वेश्या के दुर्भाव से ही इनके हृदय में विरक्ति उत्पन्न हुई ओर ये दिल्ली छोड़कर वृन्दावन चले गये। और वहीं युगलमूर्त्ति के प्रेम में मत्त होकर अपना शेष जीवन व्यतीत किया। सुना जाता है नादिरशाही ने इनके जीवन को समाप्त किया था। अंतिम समय में इन्हों ने यह रचना की थी:—

बहुत दिनन की अवधि आस पास परे
खरे अरबरनि भरे हैं उठि जान को।
कहि कहि आवत छबीले मन भावन को
गहि गहि राखत हो दै दै सनमान को।
झूठी बतियानि की पत्यानि ते उदास ह्वै कै
अब ना घिरत घन आनँद निदान को।
अधर लगे हैं आनि करिकै पयान प्रान
चाहत चलन ये सँदेसो लै सुजान को।

ये शुद्ध ब्रजभाषा के कवि माने जाते हैं। इनका दावा भी यही है, जैसा इस पद्य से प्रगट होता है।

नेही महा व्रजभाषा प्रवीन
औ सुन्दरता हुं के भेद को जानै।
योग वियोग की रीति में कोविद
भावना भेद सरूप को ठानै।