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लिखा गया। परन्तु अव भो ऐसे कतिपय रोति-ग्रंथकार शेष हैं जिनका ब्रजभाषा-साहित्य में अच्छा स्थान है और जो प्रतिष्ठा को दृष्टि से देखे जाते हैं : सब के सविशेप वर्णन के लिये मेरे पास स्थान नहीं । हां मैं यह अवश्य चाहता हूं कि उनकी रचना--शेली का ज्ञान आपलोगों को कग दू. जिससे यह यथातथ्य ज्ञात हो सके कि इस शताब्दी में ब्रजभाषा का वास्तविक रूप क्या था इसलिये कुछ लोगों को रचनायें आपलोगों के सामने क्रमशः उपस्थित करता हूं: --
सूरति मिश्र आगरे के निवासी कान्यकुब्न ब्राह्मण थे । ये विहारी मन-
सई के प्रसिद्ध टीकाकार हैं. रोति-सम्बन्धी सात आठ ग्रन्थों को रचना भी इन्होंने को है। इनका एक पद्य देखिये : ---
तेरे ये कपोल वाल अति ही रमाल मन जिनकी मदाई उपमा विचारियत है। कोऊ न समान जाहि कीजै उपमान अरु बापुरे मधूकन की देह जारियत है । नेक दरपन समता की चाह करी कहूं भये अपराधी ऐमो चित धारियत है । मरति सो याही ते जगत वीच आज हूं लौं, उन के बदन पर लार डारियत है ।
कृष्ण कवि विहागेलाल के पुत्र कहे जाते हैं। इन्होंने विहागेलाल के
दोहों पर टोका की भांति एक एक सवैय। लिखा है। वार्तिक में काव्य के समस्त अंगोका पूर्णतया निरूपण भी किया है। उनका एक पद्य देखियेः---
१---थोरे ई गुन रीझते बिसराई वह बानि ।
तुमहं कान्ह मनौं भये आजु काल्हि के दानि ।