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भूषन भनत बिनभूषन बसन साधे भूषनपियासन

हैं नाहन को निंदते।।

बालक अयाने बाट बीच ही बिलाने,

कुम्हिलाने मुख कोमल अमल अरबिन्दते ।

दृग-जल कज्जल कलित बढ्यो कढ्यो मानो,

• दूजो सोत तरनि तनूजा को कलिंद ते ।

भूषण की भाषा में जहाँ ओज की अधिकता है वहाँ उस में उतनी सरसता और मधुरता नहीं। जितनी मतिराम को भाषा में है। यह सच है कि भूषण वीररस के कवि हैं और मतिराम श्रृंगार रस के। दोनों की प्रणाली भिन्न है। साहित्य-नियमानुसार भूषण की परुषा वृत्ति है और मतिराम की वैदर्भी। ऐसी अवस्था में भाषा का वह सौन्दर्य जो मतिराम की रचनाओं में है भूषण की वृत्ति में नहीं मिल सकता । किन्तु जहां उनको वैदर्भी वृत्ति ग्रहण करनी पड़ी है, जैसे छठें और सातवें पद्यों में. वहां भी वह सरसता नहीं आयी जैसी मतिराम की रचनाओं में पायी जाती है। सच्ची बात यह है कि भाषा लालित्य में वे मतिराम की समता नहीं कर सकते । किंतु उनकी विशेषता यह है कि उनमें धर्म की ममता है, देशका प्रेम है और है जातिका अनुराग । इन भावों से प्रेरित हो कर जो राग उन्होंने गाया उसकी ध्वनि इतनी विमुग्धकरी है, उसमें यथाकाल जो गूंज पैदा हुई, उसने जो जीवनी धारा बहायी वह ऐसी ओजमयी है कि उसकी प्रतिध्वनि अब तक हिन्दी साहित्य में सुन पड़ रही है। उसी के कारण हिन्दी-संसार में वे वीर-रस के आचार्य माने जाते हैं। उनका सम- कक्ष अब तक हिन्दी-साहित्य में उत्पन्न नहीं हुआ। आज तक इस गौरवमय उच्च सिंहासन पर वे ही आसीन हैं । और क्या आश्चर्य कि चिरकाल तक वे ही उस पर प्रतिष्ठित रहें।

इनकी मुख्य भाषा साहित्यिक ब्रजभाषा है और उसमें उसके सब लक्षण पाये जाते हैं। परंतु अनेक स्थानों पर इनकी रचना में खड़ी बोली के प्रयोग भी मिलते हैं । नीचे की पंक्तियों को देखियेः-