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मोटी भई चंडी बिन चोटी के चबाय मुंड,

खोटी भई संपति चकत्ता के घराने की।

४-जीत्यो सिवराज सलहेरि को समर सुनि,
सुनि असुरन के सुसीने धरकत हैं।

देवलोक नागलोक नरलोक गावैं जस,

अजहूं लौं परे खग्ग दाँत खरकत हैं।

कटक कटक काटि कीट से उड़ाय केते,

भूषन भनत मुख मोरे सरकत हैं ।

रनभमि लेटे अधकटे कर लेटे परे,

रुधिर लपेटे पठनेटे फरकत हैं ।

दो पद्य ऐसे देखिये जो अत्युक्ति अलंकार के हैं। उनमें से पहले में शिवाजी के दान की महिमा वर्णित है और दूसरे में शत्रु -दल के वाला और वालकों की कष्ट कथा विशद रूपमें लिखी गयी है। दोनों में उनके कवि-कर्म का सुन्दर विकास हुआ है।

५-आज यहि समै महाराज सिवराज तूही,

जगदेव जनक जजाति अम्बरीष सों ।

भूषन भनत तेरे दान-जल जलधि में

गुनिन को दारिद गयो बहि खरीक सों।

चंद कर कंजलक चांदनी पराग

. उड़वृंद मकरंद वुंद पुंज के सरीक सों।

कंद सम कयलास नाक गंग नाल,

तेरे जस पुंडरीक को अकास चंचरीकसों।

६-दुर्जन दार भजि भजि बेसम्हार चढ़ीं

उत्तर पहार उरि सिवा जी नरिंद ते।