यह सूचित होता है कि उस समय ब्रजभाषा के कवियों की कितनी पहुंच राजदर्बारों में थी और उनका वहाँ कितना अधिक सम्मान था। देखिये कविवर मतिराम बूंदी का वर्णन किस सरसता से करते हैं:-
सदा प्रफुल्लित फलित जहँ द्रुम बेलिन के बाग ।
अलि कोकिल कल धुनि सुनत रहत श्रवन अनुराग।
कमल कुमुद कुबलयन के परिमल मधुर पराग ।
सुरभि सलिल पूरे जहाँ बापी कूप तड़ाग ।
सुक चकोर चातक चुहिल कोक मत्त कल हंस ।
जहँ तरवर सरवरन के लसत ललित अवतंस।
इनके कुछ अन्य पद्य भी देखियेः-
गुच्छनि के अवतंस लसै सिखि
पच्छनि अच्छ किरीट बनायो ।
पल्लव लाल समेत छरी कर
पल्लव में मति राम सुहायो ।
गुञ्जन के उर मंजुल हार
निकुंजन ते कढ़ि बाहर आयो।
आजु को रूप लखे ब्रजराजु को
आजु ही आंखिन को फल पायो ।
कुंदन को रँग फीको लगै झलकै
असि अंगनि चारु गोराई ।
आंखिन मैं अलसानि चितौनि
मैं मंजु बिलासनि की सरसाई ।
को बिन मोल बिकात नहीं
मतिराम लहे मुसुकानि मिठाई ।