पति आयो परदेस ते, ऋतु बसंत की मानि ।
अमकि झमकि निज महल में, टहलै करैं सुरानि।
बिहारी के दोहों के सामने ये दोहे ऐसे ज्ञात होते हैं जैसे रेशम के लच्छों के सामने सूत के डोरे । संभव है कि हित-तंरगिणी को बिहारी लाल ने देखा हो, परन्तु वे कृपाराम को बहुत पीछे छोड़ गये हैं। मेरा बिचार है कि बिहारीलाल को रचनाओं पर यदि कुछ प्रभाव पड़ा है तो उस काल के प्रचलित फ़ारसी साहित्य का। उर्दू शाइरी का तो तब तक जन्म भी नहीं हुआ था। फ़ारसी का प्रभाव उस समय अवश्य देश में विस्तार लाभ कर रहा था क्यों कि अकबर के समय में ही दफ़्तर फ़ारसी में हो गया था और हिन्दू लोग फ़ारसी पढ़ पढ़ कर उसमें प्रवेश करने लगे थे। फारसी के दो बन्द के शेरों में चुने शब्दों के आधार से वैसी ही बहुत कुछ काव्य-कला विकसित दृष्टिगत होती है जैसा कि बिहारी लाल के दो चरण के दोहों में । उत्तर काल में उर्दू शाइरी में फ़ारसी रचनाओं का यह गुण स्पष्टतया दृष्टिगत हुआ। परन्तु बिहारीलाल को ग्चनाओं के विषय में असंदिग्ध रीति से यह बात नहीं कही जा सकती, क्योंकि अब तक विहारोलाल के विषय में जो ज्ञात है उससे यह पता नहीं चलता कि उन्होंने फ़ारसी भी पढ़ी थी। जो हो, परंतु यह बात अवश्य माननी पड़ेगी कि बिहारीलालके दोहों में जो थोड़े में बहुत कुछ कह जाने की शक्ति है वह अद्भत है। चाहे यह उनकी प्रतिभा का स्वाभाविक विकास हो अथवा अन्य कोई आधार, इस विषय में निश्चित रूपस कुछ नहीं कहा जा सकता।
अब मैं उनको कुछ रचनायें आप लोगों के सम्मुख उपस्थित करूंगा विहारी लाल को शृंगार रस का महाकवि सभी ने माना है। इसलिये उसको छोड़कर पहले मैं उनको कुछ अन्य रस की रचनायें आप लोगों के सामने रखता हूं। आप देखिये उनमें वह गुण और वह सार ग्राहिता है या नहीं जो उनकी रचनाओं को विशेषतायें हैं। संसार का जाल कौन नहीं तोड़ना चाहता पर कौन उसे तोड़ सका ? मनुष्य जितनी ही इस उलझन के सुलझाने की चेष्टा करता है उतना ही वह उसमें उलझता जाता