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लाल ने अपने पूर्ववर्ती संस्कृत अथवा भाषा कवियों के भाव कहीं कहीं लिये हैं। परन्तु उनको ऐसा चमका दिया है कि यह ज्ञात होता है, कि घन-पटल से बाहर निकल कर हँसता हुआ मयंक सामने आ गया। इनकी सतसई के अनुकरण में और कई सतसइयां लिखी गई, जिनमें से चंदन, विक्रम और रामसहाय की अधिक प्रसिद्ध हैं, परन्तु उस बूंद से भेंट कहां ! पीतल सोना का सामना नहीं कर सकता । संस्कृत में भी इस सतसई का पूरा अनुवाद पंडित परमानंद ने किया है और इसमें कोई सन्देह नहीं कि उन्होंने कमाल किया है । परन्तु मूल मूल है और अनुवाद अनुवाद।

बिहारीलालकी सतसई का आधार कोई विशेष ग्रन्थ है अथवा वह स्वयं उनकी प्रतिभा का विकास है, जब यह विचार किया जाता है तो दृष्टि संस्कृत के 'आर्या-सप्तशती' एवं गोवर्धन सप्तशती की ओर आकर्षित होती है। निस्सन्देह इन ग्रन्थों में भी कवि-कर्म का सुन्दर रूप दृष्टिगत होता है। परन्तु मेरा विचार है कि रस निचोड़ने में बिहारीलाल इन ग्रन्थ के रचयिताओं से अधिक निपुण हैं। जिन विषयों का उन लोगों ने विस्तृत वर्णन करके भी सफलता नहीं प्राप्त की उनको बिहारीने थोड़े शब्द में लिख कर अद्भुत चमत्कार दिखलाया है। इस अवसर पर कृपा राम की 'हित तरंगिनी, भी स्मृतिपथ में आती है। परन्तु प्रथम तो उस ग्रन्थ में लगभग चार सौ दोहे हैं, दूसरी बात यह कि उनकी कृति में ललित कला इतनी विकसित नहीं है जितनी बिहारीलाल की उक्तियों में । उन्होंने संक्षिप्तता का राग अलापा है, परन्तु विहारीलाल के समान वे इत्र निकालने में समर्थ नहीं हुये। उनके कुछ दोहे नीचे लिखे जाते हैं। उनको देखकर आप स्वयं विचारें कि क्या उनमें भी वही सरसता, हृदयग्राहिता और सुन्दर शब्द-चयन-प्रवृत्ति पाई जातो है जैसी बिहारीलाल के दोहोंमें मिलती है ।

लोचन चपल कटाच्छ सर, अनियारे विष पूरि ।
मन मृग बेधैं मुनिन के, जगजन सहित विसरि ।
आजु सबारे हौं गयी, नंद लाल हित ताल |
कुमुद कुमुदिनी के भटू निरखे और हाल ।