पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/३५३

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चन्द के भरम होत मोद है कुमोदिनी को
ससि संकपंकजिनी फूलि ना सकति है।
सिसिर तुषार के बुखार से उखारतु है
पूस बीते होत सून हाथ पाथ ठिरिकै।
द्योस की छुटाई की बड़ाई बरनी न जाइ
सेनापति गाई कछु,सोचिकै सुमिरिकै।
सीत ते सहस कर सहस चरन है कै
ऐसो जात भाजि तम आवतहैघिरिकै
जो लौं कोक कोकीसों मिलत तो लौं होत राति
कोक अति बीच ही ते आवतु है फिरिकै

एक मानसिक भाव का चित्रण देखिये और विचारिये कि उसमें कितनी स्वाभाविकता है:-

जो पै प्रान प्यारे परदेस को पधारे
ताते बिरहते भई ऐसी तातिय कीगतिहै
करि कर ऊपर कपोलहिं कमल नैनी
सेनापति अनिमनि बैठियै रहति है।
कागहिं उड़ावै कबौं-कबौं करै सगुनौती
कबौं बैठि अवधि के बासर गिनतिहै।
पढ़ी-पढ़ी पाती कबौं फेरि के पढ़ति
कबौं प्रीतम के चित्र में सरूप निरखतिहै।

आप कहेंगे कि भाषा-विकास के निरूपण के लिये कवि की इतनी अधिक कविताओं के उद्धरण की क्या आवश्यकता थी । किन्तु यह सोचना चाहिये कि भाषा के विकास का सम्बन्ध शाब्दिक प्रयोग ही से नहीं है, वरन् भाव-व्यंजना से मी है। भाषा की उन्नति के लिये जैसे चुस्त और