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१-काया सों विचार प्रीति, माया ही में हार जीति,
लिये हठ रीति जैसे हारिल की लकरी ।
चंगुल के जोर जैसे गोह गहि रहै भूमि,
त्योंही पाँय गाड़े पै न छोड़े टेक पकरी ।
मोह की मरोर सों मरम को न ठौर पावै,
धावै चहुं ओर ज्यों बढ़ावै जाल मकरी ।
ऐसी दुरवुद्धि भूलि झूठ के झरोखे झूलि,
फूली फिरै ममता जंजीरन सों जकरी ।

२-भौंदू समझ सबद यह मेरा।
जो तू देखै इन आँखिन
को बिनु परकास न सूझै।
सो परकास अगिनि रवि
ससि को तू अपनोकरि बूझै।
तेरे दृग मुद्रित घट अंतर
अंध रूप तृ डोले ।
के तो सहज खुलें वै आँखें
के गुरु संगति खोले ।

३-भौंदृ ते हिरदै की आंखें ।
जे करखें अपनी सुख-सम्पति
भ्रम की सम्पति नाच
जिन आँखिन सों निरखि
भेद गुन ज्ञानी ज्ञान विचारें।
जिन आँखिन सौ लखि सरूप
मुनि ध्यान धारना धारें।