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न निकेतन श्री बनहिं, आय गोबरधन धाम ।
लह्यो सरन चित चाहि के, जुगल सरूप ललाम ।

इनमें एक और विशेषता पाई जाती है वह यह है कि एक विजातीय और विधर्मी पुरुष का भगवान श्री कृष्ण के प्रेममें तन्मय हो कर सर्वस्व- त्यागी बन जाना कम आश्चर्यजनक नहीं। परन्तु प्रेम में बड़ी शक्ति है । सच्चा प्रेम क्या नहीं करा सकता ? रसखान की रचनायें पढ़ने से ज्ञात होता है कि उनमें प्रेम की कितनी लगन थी। वे इतने सच्चे प्रेमी थे और भगवान श्री कृष्णके चरणों में उनका इतना अनुराग था कि गोस्वामी विट्ठलनाथ के प्रधान शिष्यों में उनकी भी गणना हुई और २५२ वैष्णवों की वार्ता में भी उनको स्थान मिला। इस घटना से भी इस बात का पता चलता है कि महाप्रभु वल्लभावार्य की प्रचारित प्रेम-धारा कितनी सबल थी । रसखान का सूफ़ी ममागियों की ओर से मुंह मोड़ कर कृष्णावत सम्प्रदाय में सम्मिलित होना यह बात प्रकट करना है कि उस समय जनता का हृदय किस प्रकार इस सम्प्रदाय की ओर आकर्षित हो रहा था। जब रसखान के निम्नलिखित पद्यों को हम पढ़ते हैं तो यह ज्ञात होता है कि किस प्रकार उनका हृदय परिवर्तित हो गया था और वे कैसे भगवान कृष्ण के अनन्य उपासक बन गये थे। इन पद्यों में अकृत्रिम भक्ति और प्रेमरस का स्रोत सा बह रहा है।

१--" मानुस हों तो वहीं रस खान
बसौं ब्रज गोकुल गाँव के ग्वारन ।
जो पसु हों तो कहा बस मेरो
चरौं नित नंद की धेनु मंझारन ।
पाहन हों तो वहीं गिरि को जो
धज्यो कर क्षत्र पुरंदर धारन ।
जो खग हों तो बसेरो करौं वही
कालिँदी फूलकदंब की डारन ।