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५-तो सही चतुर त जान परवीन
अति परै जनि पींजरे मोह कूआ।
पाइ उत्तम जनम लाइ लै चपल
मन गाइ गोविन्द गुन जीति जूआ।
आपुही आपु अज्ञान नलिनी वंध्यो
बिना प्रभु बिमुख कैबेर मूआ।
दास सुंदर कहै परम पद तो लहै
राम हरि राम हरि बोल सूआ ।

इनकी भाषा साहित्यिक ब्रजभाषा है परन्तु उसमें कहीं कहीं खड़ी बोली का शब्द-विन्यास भी मिल जाता है। जहां उन्होंने दार्शनिक विषयों का वर्णन किया है वहां उनकी रचना में अधिकतर संस्कृत शब्द आये हैं। जैसे निम्न लिखित पद्य में:-

ब्रह्म ते पुरुष अरु प्रकृति प्रगट भई,
प्रकृति ते महतत्व पुनि अहंकार है।
अहंकार हू ते तीन गुण सत रज तम,
तमहू ते महा भूत विषय पसार है।
रजहूं ते इन्द्री दस पृथक पृथक भई,
सत हूं ते मन आदि देवता विचार है।
ऐसे अनुक्रम करि सिष्य सों कहत गुरु,
सुन्दर सकल यह मिथ्या भ्रम जार है।

देशाटन के समय प्रत्येक प्रान्त में जो बातें अरुचिकर देखीं अपनी रचनाओं में उन्होंने उनकी चर्चा भी की है। उनकी ऐसी रच- नाओं में प्रान्तिक और गढ़े शब्दों का प्रयोग भी प्रायः देखा जाता है । निम्न लिखित पद्यांशों के उन शब्दों को देखिये जो चिन्हित हैं:-